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स्वभाववाद
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वास्तविक कारण को नहीं जानते। यह परमदेव परमेश्वर की समस्त जगत् में फैली हुई महिमा है, जिसके द्वारा यह ब्रह्मचक्र घुमाया जाता है।
पुराण में स्वभावविषयक मत
श्रीमद्भागवत महापुराण में द्रव्य, कर्म, काल एवं जीव की भाँति स्वभाव को भी भगवत्स्वरूप वासुदेव से अभिन्न बताया गया है। २६
हरिवंश पुराण में जगत् को स्वभावकृत माना है। वहाँ कहा है कि ब्रह्मा ने स्वभाव से सर्वप्रथम जल को उत्पन्न किया और जल से ही समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई है, जैसा कि कहा गया है
स्वभावाज्जायते सर्व स्वभावाच्च ते तथाऽभवत् । अहंकारः स्वभावाच्च तथा सर्वमिदं जगत् । । अथ मूर्ति समाधाय स्वभावाद् ब्रह्मचोदितः । ससर्ज सलिलं ब्रह्मा येन सर्वमिदं ततम् ।।
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अर्थात् स्वभाव से ही सबकी उत्पत्ति होती है, स्वभाव से ही परमात्मा पूर्वोक्त रूप में प्रकट हुआ और स्वभाव से ही अहंकार तथा यह सारा जगत् प्रकट हुआ है। ब्रह्म से प्रेरित ब्रह्मा ने मूर्ति (मूर्त रूप) का ध्यान कर स्वभाव से सर्वप्रथम जल को उत्पन्न किया और जल से यह समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई।
सृष्टि - निर्माण जैसे वृहत् कार्यों में ही नहीं, अपितु प्रत्येक जीव के लघु प्रसंगों में भी स्वभाव ही कारण है, यथा
स्वभावात्क्षयमायाति स्वभावाद्भयमेति
च।
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स्वभावाद्विन्दते शान्तिं स्वभावाच्च न विन्दति । । ८
स्वभाव से ही (जीव) क्षय को प्राप्त होता है। स्वभाव से ही भय को प्राप्त होता है। स्वभाव से ही शान्ति को प्राप्त करता है तथा स्वभाव से ही उसे (शान्ति को ) प्राप्त नहीं करता है।
देवी भागवत पुराण में सांख्य मत के प्रसंग में विश्व के सर्जन में स्वभाव की कारणता स्पष्ट हुई है
सदैवेदमनीशं च स्वभावोत्थं सदेदृशम्। अकर्ताऽसौ पुमान्प्रोक्तः प्रकृतिस्तु तथा च सा ।।
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