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________________ ११६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण तहावरे १७४ पंक्ति के 'पहाणाति' शब्द से व्याख्याकारों ने काल का भी ग्रहण किया है । सूत्रकृतांग में निरूपित, क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद की व्याख्या करते हुए क्रियावाद और अक्रियावाद के अन्तर्गत कालवाद के क्रमशः ३६ एवं १४ भेद निरूपित किये गये हैं । शीलांकाचार्य ने आचारांग सूत्र की टीका में कालवाद का स्वरूप निरूपित करते हुए कहा है कि काल ही विश्व की स्थिति-उत्पत्ति और प्रलय में कारण है। वह काल अतीन्द्रिय है तथा युगपत्, चिर, क्षिप्र क्रियाओं से अभिव्यंजित होता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने कालवादी शब्द का स्पष्ट प्रयोग करते हुए कहा है- कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये कालकृतमेव सर्व जगत् मन्यन्ते । १७५ कालवाद के अनुसार काल ही सब कार्यों का कारण है, उसी से व्यवस्था बनती है। यदि कोई पुरुष मूँग रांधता है तो वे भी बिना काल के नहीं रांधे जाते हैं। अन्यथा हांडी, ईंधन आदि सामग्री के संयोग से प्रथम समय में ही मूँग रंध जाते । इसलिए जो कुछ होता है वह कालकृत ही है। सिद्धसेन सूरि ने कारणपंचक के अन्तर्गत काल को प्रथम स्थान दिया है। हरिभद्रसूरि, अभयदेवसूरि आदि जैनाचार्यों ने भी कालवादी की विशद विवेचना की है। मल्लवादी क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य और अभयदेवसूरि ने अपनी कृतियों में कालवाद का प्रस्थापन कर उसका युक्तियुक्त निरसन किया है। जैन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि काल ही एकमात्र कारण नहीं है, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ की भी कारणता मानना अपेक्षित है। जैनाचार्यों द्वारा उपस्थापित पूर्वपक्ष में 'कालवाद' सिद्धान्त विषयक नवीन जानकारियाँ भी अभिव्यक्त हुई है १ - काल कार्य के प्रति अवश्यक्लृप्त नियत पूर्ववर्ती है, इसलिए एकमात्र वही कार्य का कारण है। कारण कहे जाने वाले अन्य पदार्थ अवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्ती काल से भिन्न होने से अन्यथासिद्ध है। २- काल को कार्य का यदि असाधारण कारण न माना जायेगा तो गर्भादि सभी कार्यों की उत्पत्ति अव्यवस्थित हो जाएगी। ३ - काल नित्य है एवं एक रूप है। काल कारण की सभी कार्यों के साथ अन्वय- व्यतिरेक व्याप्ति होती है। अतः जहाँ-जहाँ कारण है वहाँ-वहाँ घटित होते हैं तथा काल के अभाव में कोई कार्य घटित नहीं होता है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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