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________________ कालवाद ११७ जैनाचार्यों ने कालवाद के निरसन में अनेक प्रबल तर्क दिए हैं१- मल्लवादी क्षमाश्रमण कहते हैं कि त्रिकाल कटस्थ काल में परमार्थतः कारण-कार्य का विभाग नहीं हो सकता। कारण-कार्य का विभाग नहीं होने से व्यवहार की व्यवस्था भी नहीं बन सकती। २- हरिभद्रसूरि का तर्क है यदि अन्य कारणों से निरपेक्ष केवल काल से कार्योत्पत्ति स्वीकार की जायेगी तो अमक कार्य की उत्पत्ति के समय में अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की आपत्ति होगी। ३- हरिभद्रसूरि अन्य तर्क देते हैं कि एकमात्र काल को कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि काल के समान होने पर भी कार्य समान नहीं देखा जाता, इसलिए अन्य हेतु भी अपेक्षित हैं। काल को ही कारण मानने पर जहाँ मिट्टी नहीं है वहाँ भी घड़े की उत्पत्ति होगी। ४- शीलांकाचार्य का तर्क है कि एक स्वभावी, नित्य एवं व्यापक काल का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। वे अन्य तर्क में कहते हैं कि यदि काल ही एकमात्र कारण हो तो समान काल में सभी किसानों के खेतों में मूंगों के पकने आदि की समान फल प्राप्ति होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है। ५- अभयदेव सूरि के तर्क महत्त्वपूर्ण हैं। उनका तर्क है कि वर्षाकाल आदि काल कारण के होने पर भी वर्षा का होना रूप कार्य निरन्तर नहीं चलता। इससे काल की नित्यता एवं एकरूपता भी खण्डित होती है। साथ ही काल का स्वभाव भेद भी प्रकट होता है। जैन दार्शनिकों ने 'पंच समवाय' सिद्धान्त में पाँच कारणों के अन्तर्गत काल की भी कारणता स्वीकार की है, किन्तु वे काल की एकान्त कारणता को अंगीकार नहीं करके अन्य कारणों की भी अपेक्षा स्वीकार करते हैं। संदर्भ १. (i) महाभारत में उपर्युक्त श्लोक दो भिन्न श्लोकों के अंश का सम्मिलित रूप है; वे श्लोक निम्न हैंकालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। संहरन्तं प्रजाः कालं, काल: शमयते पुनः।। कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः। कालः सर्वेषु भूतेषु, चरत्यविधृतः समः।।-आदिपर्व, प्रथम अध्याय, श्लोक २४८, २५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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