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________________ १०८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण से ८. क्षिप्र, चिर, युगपद् आदि शब्दों के प्रयोग से तथा ९. आगम प्रमाण से काल की स्वतंत्र द्रव्य के रूप में सिद्धि की है।५° आगम में पाँच द्रव्यों का नहीं षड् द्रव्यों का उल्लेख मिलता है जिसमें धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और जीव के साथ काल की भी गणना की गई है।५१ काल के संबंध में ये मान्यताएँ विरोधी नहीं, किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है। निश्चय दृष्टि में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उसे जीव और अजीव के पर्याय रूप मानने से ही सभी कार्य व सभी व्यवहार संपन्न हो सकते हैं। समय, आवलिका, मुहूर्त आदि रूप काल जीव-अजीव से पृथक् नहीं हैं, उन्हीं की पर्याय है। काल द्रव्य की उपयोगिता के कारण व्यवहार दृष्टि में उसे स्वतंत्र द्रव्य प्रतिपादित किया गया है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व आदि कार्यों के कारण 'काल' की पृथक् द्रव्यता सिद्ध होती है। काल के भेद काल का विभाजन विभिन्न अपेक्षाओं से प्राप्त होता है। सर्वार्थसिद्धि ५२ आदि दिगम्बर ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार के रूप से दो भेद, स्थानांग सूत्र५३ में प्रमाणादि चार भेद तथा विशेषावश्यक भाष्य५४ में नाम स्थापना आदि ग्यारह भेद प्राप्त होते हैं। इनका वर्णन लोकप्रकाश५५ में भी प्राप्त होता है। वर्तना लक्षण वाला निश्चय काल है तथा द्रव्यों के परिवर्तन में सहायक व परिणामादि लक्षण वाला व्यवहार काल है। समय, अवलिका यावत् सागरोपम का विभाग रूप काल प्रमाणकाल; आयुष्य के अनुसार नरकादि में रहने का काल यथायुनिवृत्तिकाल; मृत्यु का समय मरणकाल और सूर्य के परिभ्रमण से ज्ञात होने वाला काल अद्धाकाल है। विशेषावश्यक भाष्य में नाम-स्थापना-द्रव्य-अद्धा-यथायुष्कउपक्रम-देश-काल-प्रमाण-वर्ण- भाव इन ग्यारह काल-भेदों में से नाम व स्थापना काल का उल्लेख मात्र है तथा शेष नौ काल-भेद का विस्तार से वर्णन है। काल का अनस्तिकायत्व एवं अप्रदेशात्मकत्व एकप्रदेशी द्रव्य होने से काल अनस्तिकाय है। जैन दार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है, जिनका तिर्यक् प्रचय या बहुआयामी विस्तार है। काल में ऊर्ध्व-प्रचय या एक आयामी विस्तार है, अत: उसे अस्तिकाय नहीं माना गया है। लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर कालाणु स्थित है, किन्तु प्रत्येक कालाणु अपने आप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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