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________________ कालवाद १०९ एक स्वतंत्र द्रव्य है, वे परस्पर निरपेक्ष हैं। स्निग्ध एवं रूक्ष गुण के अभाव के कारण उनमें बंध नहीं होता है अर्थात् उनके स्कन्ध नहीं बनते हैं। स्कन्ध के अभाव में उनमें प्रदेश प्रचयत्व की कल्पना संभव नहीं है, अत: वह अस्तिकाय द्रव्य नहीं है। काल में अनस्तिकायत्व के साथ अप्रदेशात्मकत्व भी होता है। अतः प्रवचनसार में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-'णस्थि पदेस त्ति कालस्स५६ काल के प्रदेश नहीं है अर्थात् काल एक प्रदेशी होने से अप्रदेशी है। काल द्रव्य से ही नहीं अपितु पर्याय से भी अप्रदेशी है और पर्याय रूप में भी पुद्गल की भाँति अनेकप्रदेशीपना नहीं है क्योंकि असंख्यात कालद्रव्य परस्पर अन्तर के बिना समस्त लोकाकाश में फैला हुआ है। इसका फैलाव प्रत्येक आकाश प्रदेश में एक-एक कालाणु के रूप में है। ये कालाणु स्निग्ध-रुक्ष गुण के अभाव के कारण रत्नों की राशि की भाँति पृथक्-पृथक् ही रहते हैं, पुद्गल परमाणुओं की भाँति परस्पर मिलते नहीं है। जब पुद्गलपरमाणु आकाश के एक प्रदेश को मन्द गति से उल्लंघन करता है तब उस प्रदेश में रहने वाला कालाणु उसमें निमित्तभूत रूप से रहता है। इस प्रकार प्रत्येक कालाणु पुद्गलपरमाणु के एक प्रदेश तक के गमन पर्यंत ही सहकारी रूप से रहता है, अधिक नहीं। इससे स्पष्ट होता है कि काल पर्याय से भी अनेक प्रदेशी नहीं है। काल की अनन्तसमयरूपता काल अनन्त समयों का समूह है, इस संबंध में सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम , सूत्र में कहा है- "कालोऽनन्तसमयः। तत्रैक एव वर्तमानसमयः। अतीतानागतयोस्त्वानन्त्यम्।। '५७ यहाँ अनन्त शब्द संख्यावाची है और समय शब्द परिणमन को प्रकट करता है। अतएव काल द्रव्य अनन्त परिणामी है। वर्तमान परिणमन या समय एक है और अतीत-अनागत समय अनन्त है। काल अनन्त पर्यायों की वर्तना का हेतु होने से अनन्त समय वाला कहा गया है। एक-एक कालाणु शक्ति भेद से अनन्त पर्यायों का परिणमन कराता है। व्यवहार से भी अनन्त शक्ति वाले काल द्रव्य को अनन्त समय वाला कहा जा सकता है। द्रव्य से वह लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होने के कारण असंख्येय होता है। लोकाकाश के बाहर कालाणुओं का अभाव होता है। जैनदर्शन में काल की कारणता सम्पूर्ण जगत् की पर्यायों का कारण काल है। जैनागमों में जगत् षड्द्रव्यात्मक माना गया है तथा षड्द्रव्यों के परिवर्तन का आधार काल है। इसका प्रतिपादन गोम्मटसार की निम्नलिखित गाथा से होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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