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________________ कालवाद १०७ कार्य में विरोध आता है। काल के द्वारा कार्य की क्रमिक उत्पत्ति होती है तो प्रत्येक कार्य के लिए काल क्रम से कारण बनेगा, जिससे काल की नित्यता एवं एकरूपता सुरक्षित नहीं रह सकेगी। यदि काल युगपद् रूप से कार्यों की उत्पत्ति में कारण बनता है तो सभी कार्य एक साथ उत्पन्न हो जायेंगे एवं दूसरे क्षण में काल अकिंचित्कर हो जाएगा। यही नहीं प्रभव, स्थिति एवं प्रलय भी भिन्न काल में न होकर एक काल में होने लगेंगे, जिससे जगत् की व्यवस्था ही गड़बड़ा जाएगी। इस प्रकार काल अपने कार्यों को उत्पन्न करने में क्रम से एवं युगपद् दोनों प्रकार से ही असमर्थ है। उपर्युक्त हेतुओं से यह सिद्ध होता है कि जगत् का कारण एकमात्र काल नहीं है। जैनदर्शन में काल का स्वरूप ___ इस चराचर जगत् के स्वरूप पर विचार करते हुए आगमकार ने उत्तराध्ययन में लोक को षड्द्रव्यात्मक कहा है।१४४ षड्द्रव्य में धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और पुद्गल के साथ 'काल' का भी समावेश किया गया है। अत: काल जैनदर्शन में द्रव्य के रूप में मान्य है। इसके विपरीत भगवती सूत्र में लोक को पंचास्तिकाय कहा है और पंचास्तिकाय में काल के अतिरिक्त पाँचों द्रव्य परिगणित है। कालविषयक दो मत __काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के संबंध में जैन दार्शनिक एकमत नहीं हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति ने भी 'कालश्चेत्येके' सूत्र के द्वारा इसका संकेत किया है। दिगम्बर परम्परा काल को स्वतंत्र द्रव्य मानती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार ४६ में, पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि०७ में, भट्ट अकलंक ने राजवार्तिक ४८ में और विद्यानन्द स्वामी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में काल को पृथक् द्रव्य कहा है। ___ श्वेताम्बर परम्परा में दोनों प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। कुछ जैन विचारकों ने जीव और अजीव द्रव्यों की पर्यायों से पृथक् काल द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। किन्तु इस मान्यता में दोष देखते हुए श्वेताम्बराचार्यों ने काल के स्वतंत्र द्रव्य की भी सिद्धि की है। उपाध्याय विनयविजय ने निम्नांकित आधार पर काल की स्वतंत्र द्रव्य के रूप में सिद्धि की है- १. सूर्य आदि की गति के आधार पर २. 'काल' शब्द के शुद्ध प्रयोग से ३. समयादि विशेष के प्रयोग से ४. काल सामान्य के होने से ५. पत्र-पुष्प-फल की समान काल में उत्पत्ति न होने से ६. विविध ऋतु भेद आदि की विवक्षा से ७. वर्तमान-भूत-भविष्य के पृथक् अनुभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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