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१०६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ३- न च ग्रहमण्डलादिकृतो वर्षादेर्विशेषः तस्यापि अहेतुकतयाऽभावात्।
न च काल एव तस्य हेतुः इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः-सति कालभेदे वर्षादिभेदहतोर्ग्रहमण्डलादेर्भेदः तभेदाच्च कालभेद इति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम् - 'काल विशेष' का हेतु असिद्ध होने पर कालवादी वर्षा को ग्रहमण्डलादिकृत कहते हैं। ग्रहमण्डल आदि से युक्त काल विशेष से वर्षा आदि का योग बनता है तो यह मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि कालवाद में ग्रहमण्डल आदि अहेतु है। ग्रहमण्डल को हेतु स्वीकार करने पर इतरेतर आश्रय दोष प्रसक्त हो जाता है। कारण कि ग्रहमण्डल काल से जन्य है और यहाँ वर्षाकाल ग्रहमण्डल से जन्य बताया जा रहा है। इस प्रकार ग्रहमण्डल काल से और काल ग्रहमण्डल से जन्य होकर एक-दूसरे पर स्वयं की उत्पत्ति के लिए आश्रित हो जाते हैं। अतः
स्पष्ट रूप से इतरेतर आश्रय दोष का प्रसंग आता है। ४- अन्यतः कारणाद् वर्षादिभेदे न 'काल एव एकः कारणं भवेत्' इत्यभ्युपगमविरोधः। कालस्य च कुतश्चिद् भेदाभ्युपगमे अनित्यत्वमित्युक्तम्- 'काल विशेष' और 'ग्रहमण्डलादि' दोनों हेतु असिद्ध होने पर कालवादी दो प्रकार से अपने मत को पुष्ट कर सकते हैं। प्रथम तो वे काल के साथ किसी अन्य को भी कारण माने, द्वितीय में काल में भेद स्वीकार करे। किन्तु वे ऐसा भी नहीं कर सकते। वर्षा आदि के होने में काल के अतिरिक्त अन्य कारण मानेंगे तो स्वयं की मान्यता में विरोध उत्पन्न होगा। काल को कार्य विशेष में विभाजित करेंगे तो काल की
अनित्यता का प्रसंग उत्पन्न होगा। ५- तत्र च प्रभव-स्थिति-विनाशेषु यापरः कालः कारणम्। तदा तत्राणि
स एव पर्यनुयोग इत्यनवस्थानान्न वर्षादिकार्योत्पत्तिः स्यात्। न चैकस्य कारणत्वं युक्तम् क्रमयोगपद्याभ्यां तद्विरोधात् - इन सबके निराकरण के पश्चात् कालवादियों ने प्रत्येक कार्य के लिए पृथक्-पृथक् काल की कारणता स्वीकार की। प्रभव-स्थिति-विनाश इन तीनों कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न काल को कारण माना। अत: वर्षा आदि कार्यों में भी ऐसी व्यवस्था मान लेने पर अर्थात् वर्षा के होने में अलग काल कारण है व वर्षा के न होने में अलग काल कारण है, भी पूर्ववत् अनित्यता आदि दोष आयेंगे
और कालवाद का सिद्धान्त स्थिर नहीं हो सकेगा। एक काल को कारण मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर क्रम से एवं युगपद् रूप से
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