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कालवाद १०५ काल कारण है, वहाँ-वहाँ कार्य घटित होते हैं तथा काल के अभाव में कोई कार्य घटित नहीं होता है। निरसन
अभयदेवसूरि ने काल को ही जगत् का एकमात्र कारण मानने वाले कालवाद के निरसन में अनेक तर्क दिए है, यथा
तत्कालसद्भावेऽपि वृष्ट्यादेः कदाचिददर्शनात्- कभी-कभी 'काल' कारण के उपस्थित होने पर भी कार्य नहीं होता है। जैसे कि कभी वर्षाकाल में वर्षा नहीं देखी जाती। अभयदेवसरि के इस तर्क को विस्तार से समझने के लिए कहा जा सकता है कि श्रावण और भाद्रपद के माह वर्षाकाल कहलाते हैं। चूंकि कालमात्र ही कार्य का कारण है तो जैसे ही वर्षाकाल उपस्थित हो वर्षा प्रारम्भ होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। श्रावण भाद्रपद माह लगभग ६० दिन-रात तक चलते हैं। अत: पूरे दिन-रात वर्षा होनी चाहिए, क्योंकि कारण उपस्थित है। इन महीनों में कुछ समय वर्षा होती है तथा कुछ समय नहीं होती है और कभी-कभी वर्षाकाल से अतिरिक्त काल (असमय) में भी वर्षा देखी जाती है। अत: काल को ही
एकमात्र कारण मानना अनुचित है। २- न च तदभवनमपि तद्विशेषकृतमेव, नित्यैकरूपतया तस्य
विशेषाभावात्। विशेषे वा तज्जननाऽजननस्वभावतया तस्य नित्यत्वव्यतिक्रमात् स्वभावभेदाद् भेदसिद्धेः - जब वर्षाकाल में वर्षा नहीं होती है तब कालवादी कहते हैं कि काल विशेष होने पर ही वर्षा होती है, किन्तु उनका यह कहना असंगत है कारण कि ऐसा मानने पर उनके द्वारा मान्य काल की नित्यता और एकरूपता बाधित हो जाती है। काल का कभी विशेष हो जाना और कभी अविशेष रह जाना उसकी परिवर्तनशीलता को प्रकट करता है। इस परिवर्तनशीलता से काल की नित्यता तो खण्डित होती ही है, एकरूपता भी खण्डित हो जाती है। काल विशेष को स्वीकार करने पर काल को विभिन्न स्वभावों से युक्त मानना होगा। किसी काल का ऐसा स्वभाव होगा कि वह वर्षा को उत्पन्न करेगा और किसी काल का ऐसा स्वभाव होगा कि वह वर्षा उत्पन्न नहीं करेगा। स्वभाव-भिन्नता काल को अनित्य सिद्ध करती है क्योंकि नित्यत्व स्वभाव त्रैकालिक होता है। त्रैकालिक सामान्य होता है और विशेष काल को स्वीकार करने से काल में सामान्य विशेष का भेद उत्पन्न हो जाता है।
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