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________________ १०४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण द्वितीय पक्ष भी अनुचित है। क्योंकि समय आदि के रूप में परिणमनशील काल विशेष में भी फल की भिन्नता देखी जाती है। उदाहरण के लिए समान काल में कोई मूंग पकता है और कोई नहीं पकता है। इसी प्रकार एक ही काल में एक ही राजा की सेवा किए जाने पर एक सेवक को तत्काल फल मिल जाता है तथा दूसरे को कालान्तर में मिलता है। इसी प्रकार एक ही समय में किए गए कृषि आदि कर्म में एक कृषक के परिपूर्ण धान्य सम्पदा उत्पन्न होती है, दूसरे के न्यून होती है और किसी के नहीं होती है। इसलिए यदि काल ही मात्र कारण हो तो सबके एक काल में समान रूप से मूंगों के पकने आदि फल की प्राप्ति होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है। इसलिए विश्व की विचित्रता कालमात्र कृत नहीं है। किन्तु कालादि सामग्री सापेक्ष एवं जीवादि के कर्म-निबन्धन आदि से विश्व की विचित्रता बनती है।१४१ यहाँ यह ध्यातव्य है कि अनेकान्त सिद्धान्त को मानने के कारण स्याद्वादी जैनाचार्यों को भी काल की कारणता अभीष्ट है, किन्तु उसकी एकान्त कारणता मान्य नहीं है। जैनों के द्वारा एकमात्र काल को कारण नहीं स्वीकार किया गया, अपितु जगत की विचित्रता में कर्म को भी कारण माना गया है। १४२ अभयदेवसूरि द्वारा कालवाद का निरूपण एवं निरसन जैनाचार्य अभयदेवसूरि (१०वीं शती) ने सिद्धसेनसूरि (५वीं शती) विरचित सन्मतितर्क पर तत्त्वबोधविधायिनी टीका करते हुए कालवाद का संक्षिप्त उपस्थापन करके जैनमत से उसका युक्तियुक्त खण्डन किया है। कालवाद का निरूपण ___ काल ही एकान्त रूप से जगत् का कारण है, ऐसा कालवादी कहते हैं। क्योंकि सर्दी, गर्मी, वर्षा, वनस्पति, पुरुष, जगत् आदि सभी की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में, दो ग्रहों के योग में, युद्ध के उदय होने में, युद्ध के अस्त होने में, गमन में, आगमन आदि सभी कार्यों में काल ही कारण है। क्योंकि अन्य सभी अभिमत कारणों के होने पर भी काल के बिना कार्य का अभाव रहता है तथा उसके सद्भाव में ही कार्य होता है। जैसा कि महाभारत में कहा गया है- "काल भूतों को पैदा करता है, काल प्रजा का संहार करता है, सबके सोने पर काल जागता है अर्थात् सबके नष्ट होने पर भी काल रहता है। काल को कोई नहीं लांघता।"१४३ अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में कालवाद का खण्डन करते समय कालवाद के पूर्वपक्ष को स्पष्ट करते हुए कहा है कि काल नित्य है एवं एकरूप है। 'काल' कारण की सभी कार्यों के साथ अन्वय-व्यतिरेक व्याप्ति होती है। अत: जहाँ-जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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