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कालवाद १०३
जैन - भरत, रामादि में पूर्वापर का व्यवहार पूर्व एवं अपर काल के योग से होता है तो स्वयं काल में पूर्वापर व्यवहार कैसे होता है? यदि अन्य काल के योग से उस काल में पूर्वापर व्यवहार होता है तो ऐसा मानना उचित नहीं, क्योंकि फिर उस काल के पूर्वापर व्यवहार के लिए अन्य काल को कारण मानना होगा । पुनः उस अन्य काल के पूर्वापर व्यवहार के लिए दूसरा काल कारण मानना होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी । १३६
कालवादी - काल में स्वयं ही पूर्वत्व और अपरत्व स्वीकार किए जाए तो यह दोष उत्पन्न नहीं होगा, जैसा कि कहा है
पूर्वकालादियोगी यः पूर्वादिव्यपदेशभाक् ।
पूर्वापरत्वं तस्यापि स्वरूपादेव नान्यतः । ।
अर्थात् जिसका पूर्वकाल से संबंध होता है, उसका पूर्व से व्यपदेश होता है तथा जिसका अपर काल से संबंध होता है उसका अपर से व्यपदेश होता है। काल का पूर्वापरत्व स्वरूप से ही माना गया है, अन्य किसी हेतु से नहीं । १३७
जैन- कालवादियों का यह कथन आकण्ठ पीत मदिरा के पश्चात् होने वाले प्रलाप की भाँति है, क्योंकि एकान्त से एक, व्यापी, नित्य, काल को स्वीकार करने पर उसमें पूर्वत्व - अपरत्व व्यवहार कैसे संभव है। १३८
कालवादी - सहचारी के सम्पर्क के कारण से एक काल में भी पूर्व - अपर आदि के व्यपदेश को स्वीकार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए सहचारी भरत आदि पूर्व है और राम आदि अपर हैं। इसलिए उनके सम्पर्क के कारण काल में भी पूर्वापर का व्यपदेश हो जाता है। जैसे कि मंचस्थ पुरुषों के सम्पर्क से 'मंचाः क्रोशन्ति' प्रयोग हो जाता है। १३९
जैन- कालवादियों का यह कथन भी मूर्खों का प्रलापमात्र है क्योंकि इससे इतरेतराश्रय दोष का प्रसंग आता है। सहचारी भरत आदि का पूर्वत्व कालगत- पूर्वत्व आदि के योग से होता है तथा काल का पूर्वत्व सहचारी भरत आदि में विद्यमान पूर्वत्व आदि के योग से होता है तो एक की सिद्धि दूसरे की सिद्धि पर निर्भर करने के कारण इतरेतराश्रय दोष स्पष्ट है।
इस प्रकार काल को एक स्वभावी, नित्य और व्यापी मानने का पक्ष श्रेयान्
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नहीं है।
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