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१०२ जैनदर्शन में कारण- कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
कालवाद का पूर्वपक्ष- काल के बिना चम्पक, अशोक, सहकार आदि वनस्पतियों में कुसुमोद्गम, फलबन्ध आदि नहीं होते । ऋतु-विभाग से ही हिम- कणों से युक्त शीत का प्रपात होता है, नक्षत्रों का परिवर्तन होता है, वर्षा गर्भाधान आदि कार्य सम्पन्न होते हैं। प्रतिनियत काल विभाग में ही बाल्य, कौमार्य, यौवन और वृद्धावस्थाओं का आगमन होता है। इस प्रकार काल से ही समस्त व्यवस्था संभव होती है, यही नहीं संसार में मूंगों का पकना भी काल के बिना नहीं होता है किन्तु काल क्रम से ही यह संभव होता है। अन्यथा स्थाली, ईंधन आदि सामग्री का सम्पर्क होने के प्रथम समय में ही मूंग पक जाने चाहिए। इसलिए जो भी कार्य है, वह सब कालकृत है। यदि काल को कारण न माना जाए तो अन्य इष्ट हेतुओं के सद्भाव मात्र से कार्य सम्पन्न हो जाना चाहिए, जबकि ऐसा होता नहीं है । वनिता एवं पुरुष के संयोग मात्र से गर्भ आदि की उत्पत्ति नहीं होती है अपितु उसमें काल की अपेक्षा रहती है। इसलिए कहा है
कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः । ।
अर्थात् काल ही पृथ्वी आदि भूतों का परिपाक या परिणमन करता है। काल ही जीवों को पूर्व पर्याय से प्रच्यवित कर अन्य पर्याय में स्थापित करता है । काल ही लोगों के सो जाने पर आपत्ति से रक्षा करता है। इसलिए काल का अपाकरण करना संभव नहीं है। , १३३
कालवाद का खण्डन
जैन- जो कालवादी सब कुछ कालकृत मानते हैं, उनसे प्रश्न है कि काल क्या एक स्वभावी, नित्य और व्यापक है? अथवा समयादि रूप से परिणमन करता है? उनमें यदि प्रथम पक्ष स्वीकार किया जाए तो वह अनुचित है, क्योंकि एकस्वभावी नित्य एवं व्यापक काल का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण से ऐसा काल नहीं जाना जाता है। अनुमान प्रमाण से भी अविनाभावी लिंग के अभाव में ऐसे काल का बोध नहीं होता। १३४
कालवादी - काल के अविनाभावी लिंग का अभाव नहीं है, क्योंकि भरत चक्रवर्ती रामादि में पूर्वापर व्यवहार देखा जाता है। यह पूर्वापर व्यवहार वस्तु के स्वरूपमात्र से नहीं होता क्योंकि वर्तमान काल में वस्तु का स्वरूप तो विद्यमान है, किन्तु पूर्वापर का व्यवहार नहीं होता है। इसलिए जिस निमित्त से भरत, राम आदि में पूर्वापर का व्यवहार होता है, वह काल है। पूर्व काल में होने के कारण भरत चक्रवर्ती में पूर्व का व्यवहार होता है तथा रामादि के अपर काल में होने के कारण रामादि में अपर व्यवहार होता है। १३५
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