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________________ कालवाद १०१ होता है इसी प्रकार वर्तमान क्षण के कार्य में पूर्व क्षण को कारण माना जाता है। इदानीम् क्षण: इस प्रतीति से कालिक आधार-आधेय भाव की सिद्धि होती है। अतः इस कार्य-कारण भाव के अनुसार तत्क्षण (वर्तमान क्षण) का पूर्वक्षण तत्क्षण का भी कारण हो जाता है।१२८ खण्डन- यदि अन्य कारणों से निरपेक्ष केवल काल से कार्योत्पत्ति स्वीकार की जाएगी तो अमुक कार्य की उत्पत्ति के समय में अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की आपत्ति होगी। साधक कारण के सद्भाव तथा बाधक कारण के अभाव होने पर कार्योत्पत्ति सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। काल मात्र ही सभी कार्यों का साधक कारण है, ऐसा कालवादी मानते हैं। काल की एकान्त कारणता स्वीकार करने के कारण किसी विशिष्ट कार्योत्पत्ति के साथ अन्य कार्योत्पत्ति का प्रसंग भी उपस्थित हो जाता है। बाधक कारणों की रिक्तता से अन्य कार्यों की अनुत्पत्ति में कोई युक्ति प्रतीत नहीं होती है।१२९ इसके निवारणार्थ 'तत्क्षणवृत्तिकार्ये तत्पूर्वक्षणहेतुत्वाभिधानाद्' हेतु दिया जाता है। जिसका तात्पर्य है कि तत्क्षणवृत्तिकार्य के प्रति तत्क्षण का पूर्वक्षण कारण है। यह हेतु भी उचित नहीं है क्योंकि जब कालमात्र ही कारण माना जाएगा तब सभी कार्यों में तत्क्षणवृत्तित्व की आपत्ति होगी। इस प्रकार एक ही कारण से विभिन्न प्रकार के कार्यों का विभिन्न समयों में उत्पन्न होना संभव नहीं है। ३० एकमात्र काल को कारण मानना उचित नहीं है, क्योंकि काल के समान होने पर भी कार्य समान नहीं देखा जाता। इसलिए विचक्षण पुरुषों के द्वारा अन्य हेतु को अपेक्षित माना जाता है।३१ काल को ही कारण मानने पर जहाँ मिट्टी नहीं है, वहाँ भी घड़े की उत्पत्ति होगी अर्थात् तन्तु आदि से भी घट की उत्पत्ति होने लगेगी। इसलिए काल के साथ देश आदि की भी नियामकता माननी चाहिए। किन्तु देश आदि को कारण मानने पर कालवाद का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। घट यदि काल मात्र से जन्य माना जाएगा तो मृद से अजन्य होने के कारण मिट्टी में भी उसकी अवृत्ति हो जाएगी क्योंकि यह व्याप्ति है- जो जिससे जन्य नहीं होता वह उसमें अवृत्ति होता है।३२ घट में मृद् अवृत्तित्व का आपादक मृद् अजन्यत्व है इसका तात्पर्य है कि घट मृद् से नहीं बना है जबकि घड़ा मिट्टी से बनता हुआ देखा जाता है। इस प्रकार काल अन्य कारणों से निरपेक्ष होकर कार्य का जनक नहीं होता। शीलांकाचार्य द्वारा उपस्थापित पूर्वपक्ष एवं उसका खण्डन शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती) ने सूत्रकृतांग की टीका में कालवाद की मान्यता को स्थापित कर उसका निराकरण किया गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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