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भव की कारणता का तात्पर्य है- अमुक योनि में जन्म की कारणता से किसी कार्य का होना । उदाहरणार्थ- देवगति और नरकगति में जन्म से ही वैक्रिय शरीर पाया जाता है। अवधिज्ञान या विभंगज्ञान देवों और नारकों में जन्म से होता है।' तिर्यंच गति में पक्षियों का उड़ना, सांप का रेंगना, मछली का तैरना, मेंढक का जल-थल में रहना आदि कार्य भव की कारणता सिद्ध करते हैं।
(२) षड्द्रव्यों की कारणता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है। जीव के शरीर, मन, वाक्, श्वास, निःश्वास आदि कार्य पुद्गल द्रव्य के द्वारा सम्पन्न होते हैं। जीवपुद्गल के गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना रूप कार्य क्रमशः धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। जीवों के गमन-आगमन, भाषा, उन्मेष, मन-वचन-काय योग की प्रवृत्ति भी धर्मास्तिकाय के निमित्त से होती है। जीवों के स्थिरीकरण, निषीदन, मन की एकाग्रता आदि स्थिर भावों में अधर्मास्तिकाय निमित्त बनता है। आकाश एवं काल की कारणता का विचार ऊपर बिन्दु न. १ में किया जा चुका है।
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पुद्गल से जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण शरीरों का निर्माण होता है। जीव द्रव्य भी अन्य जीवों के लिए उपकारी होता है- " परस्परोपग्रहो जीवानाम्" (तत्त्वार्थसूत्र, ५ . २१) वाक्य से इसकी पुष्टि होती है । कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा जीव और पुद्गल में निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध स्वीकार किया गया है। जीव के रागादि परिणामों के निमित्त से पुद्गल कर्म रूप में परिणत होते हैं तथा पुद्गल कर्मों के निमित्त से जीव रागादि भाव में परिणमन करता है।' षड्द्रव्यों में कार्य-कारणता स्वीकार करने पर भी जैन दर्शन यह मानता है कि धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य अपने स्वरूप का कभी त्याग नहीं करते एवं अन्य द्रव्य रूप में परिणमित नहीं होते हैं।
(३) जैन दर्शन में निरूपित परिणमन भी एक प्रकार का कार्य ही है तथा परिणमनों के आगमों में तीन प्रकार निरूपित हैं- विस्रसा परिणमन, प्रयोग परिणमन
१ तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् । - तत्त्वार्थसूत्र, १.२२
शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् । - तत्त्वार्थसूत्र, ५.१९
३ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक १३, उद्देशक ४
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक १३, उद्देशक ४
परिणाम कम्मत्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवोवि परिणम ||
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समयसार, गाथा ८०
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