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________________ xiv निमित्त कारण भी हो सकते हैं। इस प्रकार सभी द्रव्य स्वपरिणमन में अन्तरंग और अन्य द्रव्यों के परिणमन में बहिरंग कारण बनते हैं। क्षेत्र की कारणता से आशय है आकाश की कारणता। "खित्तं खलु आगासं" कथन क्षेत्र को आकाश प्रतिपादित कर रहा है। सभी द्रव्यों को अवगाहन हेतु स्थान देने के कारण आकाश को ही क्षेत्र माना गया है। सभी द्रव्य आकाश में ही निवास करते हैं, इसलिए वह सबका क्षेत्र या निवास कहा जाता है। जो द्रव्य या पदार्थ जितना आकाशीय स्थान घेरता है, उसका उतना क्षेत्र होता है। काल की कारणता वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व-अपरत्व स्वरूप कार्यों की दृष्टि से अंगीकार की गई है। काल के कारण ही धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य वर्तन करते हैं अर्थात् बने रहते हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो इनका अस्तित्व काल से ही सम्भव होता है। द्रव्यों के पर्याय-परिणमन में, उनके परिस्पन्द रूप क्रिया में तथा ज्येष्ठत्व-कनिष्ठत्व में काल उदासीन निमित्त कारण होता है। भाव की कारणता का सम्बन्ध विशेषत: जीव से है। जीव के पाँच भाव स्वीकार किये गये हैं- औदयिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और पारिणामिक। छठा भाव इनके मिश्रण से सान्निपातिक कहलाता है। औदयिक भाव से नरक आदि चार गतियाँ, क्रोध आदि चार कषाय, स्त्री आदि तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, षड्लेश्याएँ, असंयम, संसारित्व और असिद्धत्व स्वरूप कार्यों की उत्पत्ति होती है। औपशमिक भाव से सम्यक्त्वलब्धि और चारित्रलब्धि तथा क्रोध-शमन, मानशमन आदि कार्य निष्पन्न होते हैं। क्षायोपशमिक भाव से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन, सम्यक्-दर्शन तथा दान-लाभ-भोग-उपभोग और वीर्यलब्धि प्राप्त होती है। जीव का जीवत्व, अजीव का अजीवत्व, भव्यजीव का भव्यत्व और अभव्य जीव का अभव्यत्व पारिणामिक भाव से निष्पन्न होते हैं। अजीव में अजीवत्व पारिणामिक भाव होता है, किन्तु अजीव पुद्गल के वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श की पर्यायों को भी उनका भाव कहा गया है। इन भावों की तरतमता के अनुसार परिणमनरूप कार्य सिद्ध होता है। ' औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च। - तत्त्वार्थसूत्र, २.१ २ छव्विधे भावे पण्णत्ते ओदइए, उपसमिते, खतिते, खाओवसमिते, परिणामिते, सन्निवाइए। - अनुयोगद्वारसूत्र, नामाधिकार, सूत्र २३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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