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और मिन परिणमन। बिना किसी बाह्य प्रेरक निमित्त के उपादान में स्वतः होने वाला परिवर्तन विस्रसा परिणमन कहलाता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल द्रव्य में जो परिणमन होता है, वह विनसा परिणमन है। जीव और पुद्गल में भी यह परिणमन पाया जाता है। जीव में ज्ञान, दर्शन आदि की पर्यायों का परिणमन सिद्धों में स्वाभाविक रूप से होता है। इसी प्रकार परमाणुओं में परिणमन बहुधा स्वाभाविक रूप से होता है। प्रयोग-परिणमन में जीव के प्रयत्न का योगदान रहता है, यथा- तन्तुओं से वस्त्र, मिट्टी से घट आदि का निर्माण प्रयोगज परिणमन है। मिस्र परिणमन में स्वाभाविक परिणमन एवं जीव के प्रयत्न दोनों का समावेश होता है।
(४) तद्रव्य और अन्यद्रव्य की कारणता के रूप में विशेषावश्यकभाष्य एवं उस पर मल्लधारी हेमचन्द्र की वृत्ति में चर्चा की गई है, जो दोनों क्रमश: उपादान और निमित्त कारणों के सूचक हैं। पट कार्य की उत्पत्ति में तन्तु 'तद्रव्य कारण' तथा वेमादि को 'तद् अन्य द्रव्य कारण' स्वीकार किया गया है।
(५) कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण-इन षट्कारकों को विशेषावश्यक भाष्य में कारण के रूप में प्रतिपादित किया गया है, क्योंकि ये सभी क्रिया या कार्य की जनकता में सहयोगी होते हैं। व्याकरण-दर्शन में क्रिया का जनक होने से ही कर्ता, कर्म आदि को कारक कहा गया है।
(६) जैनदार्शनिकों के अनुसार नित्यानित्यात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, सामान्यविशेषात्मक अथवा सदृशासदृशात्मक पदार्थों में ही कार्य-कारण भाव घटित हो सकता है। जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि कार्य-कारण भाव अर्थक्रिया करने वाले पदार्थों में ही संभव है और अर्थक्रिया सर्वथा नित्य तथा सर्वथा अनित्य पदार्थों में न क्रम से हो सकती है और न युगपत्। नित्यानित्यात्मक पदार्थों में ही अर्थक्रिया का घटन हो सकता है इसलिए उनमें ही कार्य-कारण भाव संभव है।
१ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक ८, उद्देशक १ २ विशेषावश्यकभाष्य, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुम्बई, द्वितीयभाग, पृ० ४३४
विशेषावश्यकभाष्य, गाथा २११२-२११८ (१) कार्यकारणभावश्चार्थक्रियासिद्धौ सिध्येत्। - षड्दर्शनसमुच्चय, वृत्ति, भारतीय
ज्ञानपीठ, पृ० ३८९ (२) अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता। - भट्ट अकलंक, लघीयस्त्रय, ४.
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