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९८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
कालवादी कहे कालवश है सकल द्रव्य, काल ही तें नहीं होत पूत मात तात को। नारी गर्भ धरे पुनि कालतें प्रसवें पुत्र, काल ही तें बोले चाले काल कर बात को। कालथी जवान वय काल ही तें बुद्ध होय, कालही ते मरजात नाश होय गात को। काल ही ते नरक तिर्यच नर सुरगत, काल ही ते मरकर भ्रमे जात जात को। काल ही ते सरपिणी उतसरपिणी काल, काल ही ते आराही को भाव भांत-भांत को। काले जिन चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव,
बेहु रीत काल चक्र भिन्न दिन रात को।।१७ जैन दार्शनिकों द्वारा कालवाद का उपस्थापन एवं निरसन मल्लवादी क्षमाश्रमण द्वारा उपस्थापन एवं निरसन
मल्लवादी क्षमाश्रमण (५वीं शती) ने द्वादशारनयचक्र के द्वितीय अर में कालवाद की चर्चा की है। उन्होंने 'विधिविधि' नामक इस अर में मीमांसक मत वेद के अप्रामाण्य असत्कार्यवाद आदि का प्रतिपादन करने के अनन्तर नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद आदि का निरूपण किया है। नियतिवाद का खण्डन करते हुए उन्होंने कालवाद को उपस्थापित किया है।
कालवाद का उपस्थापन- चेतन, अचेतन, पृथ्वी, उदक, अग्नि, पवन, वनस्पति आदि पदार्थ अनादि अनन्त रूप से वर्तन करते हैं। उनका कलनात्मक स्वरूप भूयः भूयः परिवर्तित होता है। अतीत-अनागत और वर्तमान स्वरूप वाला एक कूटस्थ नित्य लक्षण युक्त कलनात्मक कारण काल है। इसे ध्रुवादि सर्व नित्य लक्षण भी कहा है। यह कलन दो प्रकार का है- एक तो हमारे जैसे असर्वज्ञों के लिए है, जो अनुमान मात्र से गम्य है एवं पर्याय मात्र से अविविक्त रूप में जाना जाता है। जिस प्रकार बिना नाप के कोष्ठागार में भरे हुए धान्य के संबंध में कहा जाय कि यह धान्य एक लाख घड़े जितना होगा, इसी प्रकार हमारे द्वारा वह काल अतीत, अनागत और वर्तमान के
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