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कालवाद ९७ कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिसे कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ हुंति सम्मत्त।। इसमें काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थ का एकान्त रूप मिथ्या तथा समवाय रूप सम्यक् कहा है।१४ इस काल रूपी कारण की एकान्त मान्यता ही कालवाद है। इस ग्रन्थ पर टीका करते हुए अभयदेवसूरि ने कालवाद आदि की मान्यताओं का विस्तार से निरूपण कर उसका विभिन्न तर्को से खण्डन किया है।
शास्त्रवार्ता समुच्चय में दार्शनिक हरिभद्र सूरि (आठवीं शती) ने अन्य मतों की चर्चा का प्रारम्भ करते हुए कहा है- "कालादीनां च कर्तृत्वं मन्यन्तेऽन्ये प्रवादिनः '११५ कालवादी, स्वभाववादी आदि अन्य मतावलम्बी काल, स्वभाव आदि को असाधारण रूप से कार्य का हेतु या कारण स्वीकार करते हैं। कालवाद को पुष्ट करने वाले विभिन्न श्लोक यहाँ प्रस्तुत है १६
न कालव्यतिरेकेण गर्भकालशुभादिकम्। यत्किंचिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल।।५३।। किंच कालाद्वते नैव मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते। स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि ततः कालादसौ मता।।५५।। कालाभावे च गर्भादि सर्व स्यादव्यवस्थया।
परेष्टहेतुसद्भावमात्रादेव तदुद्भवात्।।५६।। गर्भ का प्रसव और शुभ-अशुभ आदि अर्थात् स्वर्ग नरकादि सभी काल की अपेक्षा रखते हैं। लोक में घटादि जो कुछ भी होता है वह काल से अतिरिक्त नहीं होता यानी यह काल ही निश्चित रूप से कारण है।।५३।। स्थाली (तपेली) और अग्नि का संयोग होने पर भी मूंग की दाल का परिपाक उचित काल आने तक नहीं होता। अत: मूंग-पाक किसी अन्य हेतु से उत्पन्न न होकर केवल काल से ही उत्पन्न होता है।।५५।। कालविरोधी परमतावलम्बी सन्तानोत्पत्ति में माता-पिता के संयोग मात्र को ही कारण स्वीकार करेंगे तो तत्काल सन्तान के जन्म का प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा। अत: काल के कार्य का असाधारण कारण मानना उचित है।
कालवाद को पद्य के रूप में आधुनिक कालीन आचार्य तिलोकऋषि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है
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