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________________ ९६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, पुद्गल-परावर्तन, अतीत, अनागत, वर्तमान, सर्व अद्धादि काल व्यवहार रूप हैं। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने कालवाद को इस प्रकार स्पष्ट किया है "कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये कालकृतमेव सर्व जगत् मन्यन्ते। तथा च ते आहुः- न कालमन्तरेण चम्पकाशोकसहकारादिवनस्पतिकुसुमोद्गमफलबन्धादयो हिमकणानुषक्तशीतप्रपातनक्षत्रगर्भाधानवर्षादयो वा ऋतुविभागसंपादिता बालकुमारयौवनवलिपलितगमादयो वाऽवस्थाविशेषा घटन्ते, प्रतिनियतकालविभाग एव तेषामुपलभ्यमानत्वात्, अन्यथा सर्वमव्यवस्था भवेत् न चैतद् दृष्टमिष्टं वा। अपि च मुद्गपक्तिरपि न कालमंतरेण लोके भवंती दृश्यते। किंतु कालक्रमेण अन्यथा स्थालीधनादिसामग्रीसंपर्कसंभवे प्रथमसमयोऽपि तस्याभावप्रसंगो न च भवति, तस्मात् यत्कृतकं तत्सर्व कालकृतं इति।"११३ कालवादी वे हैं- जो समस्त जगत को कालकृत ही मानते हैं। वे कहते हैं कि चंपक, अशोक, सहकार आदि वनस्पति, फूलों का लगना, फलों का पकना, हिमकण संयुक्त शीत का पड़ना, नक्षत्रों का घूमना, गर्भ का धारण करना, वर्षा का होना- यह सब काल के बिना नहीं होते हैं। षट् ऋतुओं में होने वाली अवस्थाएँ तथा बाल, युवा एवं वृद्ध आदि की अवस्थाएँ भी बिना काल के संभव नहीं होती हैं। प्रतिनियत काल में ही उन-उन घटनाओं या अवस्थाओं की प्राप्ति होती है, इन सबका काल ही नियंता है। काल को नियंता नहीं मानेंगे तो किसी भी वस्तु की ठीक व्यवस्था नहीं हो सकेगी, जो कि दृष्ट एवं इष्ट नहीं है। यदि कोई पुरुष मंग रांधता है तो वे भी बिना काल के नहीं रांधे जाते हैं, अन्यथा हांडी, ईधनादि सामग्री के संयोग से प्रथम समय में ही मूंग रंध जाते। इसलिए जो कुछ होता है, वह कालकृत ही है। सिद्धसेनसूरि, हरिभदसूरि आदि के ग्रन्थों में कालवाद आगम के अतिरिक्त अन्य जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी कालवादियों के संबंध में उल्लेख प्राप्त होता है। पाँचवीं शती के आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मतितर्क प्रकरण' में विभिन्न वादों का जो एकान्त मान्यता के पोषक थे, उपस्थापन किया है तथा भगवान् महावीर द्वारा स्थापित तत्त्वदर्शनों के समन्वयक अनेकान्त सिद्धान्त के माध्यम से इन विभिन्न मतों को एकता के सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास किया है। अनेकांत दृष्टि से इन ऐकान्तिक वादों का समन्वय होकर नया रूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुआ है। इसी शृंखला में उन्होंने कार्य-कारण की भेदाभेदात्मकता की चर्चा करते हुए 'कारणपंचक' का प्रतिपादन किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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