SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कालवाद ९९ वर्तन से जाना जाता है। कलन का दूसरा स्वरूप सर्वज्ञों के लिए है जो प्रत्येक समय में होने वाली वर्तना को जानता है।११८ वह काल वर्तना स्वरूप समानाधिकरण से युक्त होता हुआ, वर्तना स्वरूप सामान्य को नहीं त्यागता हुआ भूत-वर्तमान और भविष्य नामक व्यपदेश को प्राप्त करता है।११९ वर्तना के अबाधित होने से एवं व्यापक होने से अन्य कारण की अपेक्षा नहीं है। बिना दूसरे कारण के स्वयं काल ही कार्य-कारण वृत्ति से परिवर्तन करने में समर्थ है। यह काल वृत्ति अनादि है। अनादि वर्तना के कारण यौगपद्य एवं क्रम दोनों घटित होते हैं। पृथ्वी, अम्बु, वायु, आकाश, पुरुष आदि युगपत् (एक साथ) मिलकर लोक कहलाते हैं एवं ये अनादि हैं। इस प्रकार इनमें युगपद् भाव है। इनकी प्रतिसमय होने वाली पर्याय क्रम से होती है। इसलिए इनमें क्रमभाव भी है। एकान्त कालवाद को प्रस्तुत करते हुए मल्लवादी क्षमाश्रमण ने कहा है काल एव हि भूतानि, कालः संहारसम्भवौ। स्वपन्नपि स जागर्ति कालो हि दुरतिक्रम।। १२० काल ही भूतों के रूप में वर्तन करता है, उत्पत्ति और संहार की क्रियाएँ भी काल में होती है। वह काल सोता हुआ जागता है, काल का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। कालवाद का निरसन- त्रिकाल कूटस्थ काल में परमार्थतः कारणकार्य का विभाग नहीं हो सकता। कारण-कार्य का विभाग नहीं होने से सामान्य एवं विशेष व्यवहार का अभाव रहता है। व्यवहार का प्रत्याख्यान होने पर अर्थात् काल से सामान्य-विशेष का व्यवहार न होने पर काल के अस्तित्व का अनुमान नहीं हो सकता। जिस प्रकार पूर्व-पर आदि कारण-कार्य के व्यवहार का अभाव होने से नियति संभव नहीं होती, इसी प्रकार व्यवहार का अभाव होने से काल को भी कारण नहीं माना जा सकता।१२१ हरिभद्रसूरि द्वारा उपस्थापन एवं खण्डन शास्त्रवार्ता समुच्चय में हरिभद्रसूरि (८वीं शती) ने प्रसंगवश अन्यमतों की चर्चा करते हुए एकान्त कालवाद आदि मान्यताओं का उपस्थापन कर उसका खण्डन किया है। यहाँ कालवाद का मण्डन एवं खण्डन अभिप्रेत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy