SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ३५. सर्वोऽपि बुद्धौ संकल्प्य कुम्भादिकार्य करोतीति व्यवहारः - विशेषावश्यकभाष्य गाथा २११३ की शिष्यहिता नामक बृहदवृत्ति ३६. अतः सुकरत्वात् कार्यमप्यात्मन: कारणमिष्यते -विशेषावश्यकभाष्य गाथा २११३ की शिष्यहिता बृहद्वृत्ति ३७. बाह्यानि कुलाल-चक्र-चीवरादीनि यानि निमित्तानि तदपेक्षं क्रियमाणकालेऽन्तरंगबुद्धयालोचितं कार्य भवति स्वस्यात्मनः कारणम् स्वकारणम्, अन्यथा यदि बुद्धया पूर्वमपर्यालोचितमेव कुर्यात् तदाऽप्रेक्षापूर्वे शून्यमनस्कारम्भविपर्ययो भवेत्, घटकारणसंनिधानेऽप्यन्यत् किमपि शरावादिकार्य भवेत्, अभावो वा भवेत्- न किंचित् कार्ये भवेदित्यर्थः। तस्माद् बुद्ध्यध्यवसितं कार्यमप्यात्मनः कारणमेष्टव्यम्।-विशेषावश्यक भाष्य गा. २११४, २११५ की टीका विशेषावश्यक भाष्य भाग द्वितीय, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, पृ. ४३४ विशेषावश्यक भाष्य भाग द्वितीय, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, पृ. ४३४ विशेषावश्यक भाष्य भाग द्वितीय, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, पृ. ४३४ विशेषावश्यक भाष्य भाग द्वितीय, दिव्य दर्शन ट्रस्ट, पृ. ४३४ व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक १९, उद्देशक ९ ४३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, शतक १९, उद्देशक ९ सूत्रकृतांग नियुक्ति, ४ (क)कसाय पाहुड १/२४५/२८९/३ उद्धत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग द्वितीय, पृ. ६४ (ख)"सो पुण खेत्त भाव काल पोग्गलट्ठिदी विवागोदय त्ति एदस्स गाहाथच्छद्धस्स समुदायत्थो भवदि" __ -कसायपाहुड उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग प्रथम पृ. ३६५ ४६. प्रज्ञापनासूत्र पद २३वां ४७. राजवार्तिक, अध्याय ३, सूत्र ३७ की टीका में ४८. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, २१९ ४९. पंचास्तिकाय, गाथा १० ५०. अधिक विस्तार के लिए द्रष्टव्य पृ. ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy