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६४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ३. 'पंच समवाय' शब्द आधुनिक युग में अत्यन्त प्रसिद्ध होकर भी अधिक
प्राचीन नहीं है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख कब हुआ यह तो निश्चित नहीं कहा जा सकता किन्तु १९वीं शती में तिलोकऋषि जी द्वारा इस शब्द का अपनी काव्यरचना में भूरिशः प्रयोग किया गया है। इससे यह ज्ञात होता है कि तिलोकऋषि जी के समय 'पंच समवाय' शब्द प्रसिद्ध हो चुका था किन्तु उसके पूर्व पंच समवाय का प्रयोग किसने किया, यह उपलब्ध एवं अधीत
स्रोतों से ज्ञात नहीं हो सका है। ४. सिद्धसेन सूरि ने 'समासओ' शब्द का प्रयोग किया है जो आगे चलकर
'कलाप' 'समुदाय', 'समुदित' से 'समवाय' के रूप में विकसित हुआ है। संदर्भ
१. तर्कभाषा, चौखम्बा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, संस्करण-९, वि.सं. २०५२, पृ.
वही, पृ. २१ वेदान्तसार, साहित्य भण्डार, मेरठ, चतुर्दश संस्करण २०००, पृ. ८८-८९ वेदान्तसार, साहित्य भण्डार, मेरठ, पृष्ठ १२० पंचास्तिकाय, गाथा १९
पंचास्तिकाय, गाथा ५४ ७. सन्मति प्रकरण, तृतीय काण्ड, गाथा ५०-५२ का विवेचन
दृष्टव्य पृ.७ .९. तत्तस्य कार्य-कारणं वा युक्तं भिन्नलक्षणत्वात्तयोः। अन्यथा तद्व्यवस्था
संकीर्येत। -प्रमेयकमलमार्तण्ड, द्वितीय भाग, पृ. १५३ प्रमेयकमलमार्तण्ड, तृतीय भाग, पृ. १५७
प्रमाणनयतत्त्वालोक, ३.५५, ५६ १२. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २२२ (पृ. १५५) १३. धवला पुस्तक ७/२, १, ७/१०/५ १४. परीक्षामुख, तृतीय परिच्छेद, सूत्र १८ १५. धवला पुस्तक- १/१, १, ४७/२७९/७
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