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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय
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इन्द्रिय, प्राण आदि के निर्माण में, जीव द्रव्य पुद्गल के प्रयोग परिणमन में तथा परस्परोपग्रह में सहायक कारण होता है। काल द्रव्य सभी द्रव्यों के परिणमन में सहायक भूत है।
वेदान्त दर्शन में निरूपित उपादान और निमित्त कारणों के रूप में भी जैन दार्शनिकों ने कारण- कार्य सिद्धान्त की व्याख्या की है। आगम वाङ्मय में उपादान और निमित्त शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है किन्तु उत्तरवर्ती दार्शनिकों ने इन्हें जैनदर्शन में यथोचित स्थान दिया है। उपादान प्रमुख कारण होता है जिसमें कार्य घटित होता है तथा अन्य सहायक कारण निमित्त कहलाते हैं । निमित्त कारण को सहकारी कारण भी कहा गया है।
कारण-कार्यवाद में जैन दार्शनिकों का पंच समवाय सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह उनकी अनेकान्त दृष्टि का परिणाम है। पंच समवाय के संबंध में आगम वाङ्मय में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ की चर्चा यत्र-तत्र विकीर्ण है। सिद्धसेन सूरि ने पाँचवीं शती ईस्वीं में सन्मति तर्क प्रकरण में इन कारणों का निम्नानुसार कथन किया है
कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिसे कारणेगंता।
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मिच्छत्तं ते चेव उ, समासओ होन्ति सम्मत्तं । । '
सिद्धसेन सूरि ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद का प्ररूपण करते हुए नयदृष्टि से काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष / पुरुषार्थ की कारणता अंगीकार की है। वे इनमें से मात्र एक की कारणता को ही अंगीकार करने को मिथ्यात्व एवं सबकी सामुदायिक कारणता को सम्यक्त्व मानते हैं। काल आदि पाँचों की सामूहिक कारणता का प्रतिपादन ही 'पंच समवाय' के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है।
पंच समवाय के संबंध में निष्कर्ष रूप में निम्नांकित तथ्य उभर कर
आते हैं
१. काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष / पुरुषार्थ की सामूहिक या सापेक्ष कारणता का सिद्धान्त ही पंच समवाय के रूप में प्रसिद्ध हुआ ।
२. पंच समवाय सिद्धान्त जैन दार्शनिकों की अनेकान्त दृष्टि या नय दृष्टि का परिणमन है।
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