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५८ जैनदर्शन में कारणग-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
से देवकृत या ईश्वरकृत लोक की कल्पना प्रचलित हुई। मुण्डकोपनिषद् ३७ में तो स्पष्ट कहा है- विश्व का कर्ता और भुवन का गोप्ता (रक्षक) ब्रह्मा देवों में सर्वप्रथम हुआ। तैत्तिरीयोपनिषद्२८ में भी प्राणी ब्रह्मा से प्रसृत कहे हैं। बृहदारण्यक में ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि रचना की विचित्र कल्पना बतायी गई है और क्रम भी । ब्रह्मा अकेला रमण नहीं कर सकता था, उसने दूसरे की इच्छा की और स्वयं ने अपने आपके दो भाग किए। वे दोनों भाग पति-पत्नी के रूप में हो गए। पहले मनुष्य, फिर गाय-बैल, गर्दभ-गर्दभी, बकरा-बकरी, पशु-पक्षी आदि से लेकर चींटी तक सबके जोड़े बनाए । उसे विचार हुआ कि मैं सृष्टि रूप हूँ, मैंने ही सबका सृजन किया है, इस प्रकार सृष्टि हुई। १३९ वैदिक पुराण में भी सृष्टि का क्रम बताया गया है। इस प्रकार के अनेक प्रसंग ब्रह्मा द्वारा सृष्टि रचना के मिलते हैं।
वेद के अतिरिक्त पुरुषवादी मुख्यतया तीन दार्शनिक हैं - १. वेदान्ती २. नैयायिक ३. वैशेषिक । वेदान्ती ईश्वर (ब्रह्मा) को ही जगत् का उपादान कारण एवं निमित्त कारण मानते है। ब्रह्म माया के द्वारा आवृत्त होने पर जब सविशेष या सगुण भाव को धारण करता है, तब उसे 'ईश्वर' कहते हैं। विश्व की सृष्टि, स्थिति और लय का कारण यही ईश्वर है । माया से आवृत्त ब्रह्म अर्थात् ईश्वर चेतना युक्त है। चैतन्य पक्ष का अवलम्बन लेने पर ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण और उपाधि (माया) पक्ष का अवलम्बन लेने पर यही ब्रह्म जगत् का उपादान कारण है।
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नैयायिक मतावलम्बी ईश्वर के रूप में शिव को मानते हैं और शिव को ही इस चराचर जगत् का कर्ता, भर्ता और संहर्ता मानते हैं। ईश्वर जीवों के कर्मफलों का प्रदाता होने से नैतिक अध्यक्ष तथा शासक है। मनुष्य कर्म के सम्पादन में निमित्तकारण होता है और ईश्वर उनका प्रयोजक कर्ता होता है, जो उसे कार्यों में लगाता है तथा करने की प्रेरणा देता है । वह हमारे सुखों और दुःखों का नियामक है। ईश्वर को जगत्कर्ता मानने के साथ-साथ नैयायिक उसे एक, सर्वव्यापी (आकाशवत् ), नित्य, स्वाधीन, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान भी मानते हैं । ईश्वरकृत कार्यों द्वारा उदयनाचार्य ने न्यायकुसुमांजलि" ग्रन्थ में ईश्वर की सिद्धि की है। इसके बाद न्यायवार्त्तिक, न्यायमंजरी, न्यायकंदली आदि अनेकानेक न्याय ग्रन्थों में ईश्वरवाद का उत्तरोत्तर विकास हुआ है। वेदान्त दर्शन जहाँ ईश्वर को उपादान कारण भी मानता है, वहाँ नैयायिक मात्र निमित्त कारण ही मानते हैं। ईश्वर कर्तृत्व के विषय में वैशेषिकों की मान्यता नैयायिकों की मान्यता से प्राय: समान ही है। पतंजलि ईश्वर को पुरुष विशेष के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार जो पतंजलि क्लेश, सर्वविध कर्मविपाक और कर्म - आशय से रहित होता है, ऐसा पुरुष विशेष ही ईश्वर है । १४१
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