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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ५९ जैनदर्शन में भी ईश्वरवाद का संकेत मात्र सूत्रकृतांग में मिलता है। इसके द्वितीय श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन 'पौण्डरिक' में ईश्वरवादी का उल्लेख एक रूपक में प्राप्त होता है। इस रूपक में तत्कालीन ईश्वरवादियों का मन्तव्य स्पष्ट हुआ है, जो इस तरह है
इह खलु धम्मा पुरिसादीया पुरिसोत्तरिया पुरिसप्पणीया पुरिसपज्जोइता पुरिसअभिसमण्णागता पुरिसमेव अभिभूय चिट्ठति।१४२
इस जगत् में जितने भी चेतन-अचेतन धर्म (पदार्थ) हैं, वे सब पुरुषादिक हैं- ईश्वर या आत्मा उनका कारण है, वे सब पुरुषोत्तरिक हैं। ईश्वर या आत्मा ही सब पदार्थों का कर्ता है तथा संहारक है, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रणीत (रचित) हैं, ईश्वर से ही उत्पन्न (जन्मे हुए) हैं, सभी पदार्थ ईश्वर द्वारा प्रकाशित हैं, सभी पदार्थ ईश्वर के अनुगामी हैं, ईश्वर का आधार लेकर टिके हुए हैं।
इसके अतिरिक्त यहाँ ईश्वर के प्रतिपादन में सात युक्तियाँ भी प्रस्तुत की गई हैं, जो ईश्वर के कर्तृत्व की व्याख्या करती हैं।
ईश्वर कर्तृत्व को आचार्य हरिभद्रसूरि ने एक अपेक्षा से स्वीकार करते हुए जैनदर्शन में इसके मान्य स्वरूप को प्रस्तुत किया है। ईश्वर कर्तृत्ववाद का कथंचित् औचित्य है, यह निम्न गाथा से प्रमाणित होता है
ईश्वरः परमात्मैव तदुक्तव्रतसेवनात्। यतो मुक्तिस्ततस्तस्याः कर्ता स्याद् गुणभावतः।।४३
इस तथ्य को स्याद्वादकल्पलता टीका में स्पष्ट करते हुए टीकाकार यशोविजय जी कहते हैं- 'परमाप्तप्रणीतागमविहितसंयमपालनात्, यतो मुक्तिः कर्मक्षयरूपा भवति, . ततस्तस्या राजादिवदप्रसादाभावेऽप्यचिन्त्यचिन्तामणिवद् वस्तुस्वभावबलात् फलदोपासनाकत्वेनोपचारात्, कर्ता स्यात्।' अर्थात् परमात्मा द्वारा उपदिष्ट आगमों में जिस संयम धर्म का वर्णन है उसके पालन से मुक्ति होती है। यह मुक्ति समग्र कर्मों का क्षय रूप है। इस मुक्ति का आदि मूल परमात्मा का उपदेश ही होता है, इसलिए ही परमात्मा को उपचार से उनका कर्ता कहा जाता है। जैसे-राजा आदि का प्रसाद और रोष अन्यों के अनुग्रह-निग्रह का कर्ता होता है, वैसा प्रसाद-रोष परमात्मा में नहीं होता है।
वह चिन्तामणि के समान स्वभाव से ही मनुष्य की इच्छाओं की सिद्धि करता है। चिन्तामणि के सम्पर्क से वांछित की प्राप्ति होने से चिंतामणि वांछित का
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