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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ५७ मुक्ति-सुख की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करो। पुरुषार्थ करो।
पुरुषार्थ का अर्थ यहाँ उद्योग, परिश्रम, पराक्रम, बल-वीर्य आदि हैं। जैनदर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है। उपासकदशा सूत्र के छठे अध्ययन में कुण्डकोलिक और देवता के संवाद से तथा सातवें अध्ययन में महावीर स्वामी द्वारा शकडाल को दिए गए उपदेश से पुरुषार्थ की सिद्धि होती है। भगवती सूत्र के प्रथम शतक के तृतीय उद्देशक में भी कर्म का उदय, उपशम, उदीरणा आदि अपने किए होता है, ऐसा बतला कर उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषार्थ की ही स्थापना की है। महाभारत में भी इसकी उपयोगिता सिद्ध की गई है
यदि दक्षः समारम्भात्, कर्मणो नाश्नुते फलम्।
नास्य वाच्यं भवेत्किंचिल्लब्धव्यं वाधिगच्छति।।
अर्थात् पुरुषार्थी मनुष्य कदाचित् कार्यारम्भ में फल प्राप्त नहीं करे तो भी उसे किसी प्रकार का धोखा नहीं हो सकता, कभी न कभी फल प्राप्ति होकर ही रहेगी।
भारतीय परम्परा में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को भी पुरुषार्थ कहा गया है। इसमें से जैन दर्शन में धर्म एवं मोक्ष को ही महत्त्व दिया गया है। मोक्ष की प्राप्ति पुरुषार्थवादी दर्शनों में ईश्वर की कृपा का फल नहीं, अपितु स्वयं जीव के द्वारा किए हुए सत्प्रयत्न एवं साधना का सुपरिणाम है। श्रमण संस्कृति के दर्शन प्रायः पुरुषार्थ को प्रधान मानते हैं।
पुरुषवाद- पुरुषवादियों के अनुसार इस संसार का रचयिता पालनकर्ता एवं हर्ता पुरुष विशेष है। इसमें सामान्यतः दो मतों का समावेश है- ब्रह्मवाद और ईश्वरवाद। ब्रह्मवाद की मान्यता है कि जिस प्रकार मकड़ी जाले के लिए और चन्द्रकान्त मणि जल के लिए हेतुभूत है उसी प्रकार पुरुष अर्थात् ब्रह्म समस्त जगत् के प्राणियों की सृष्टि, स्थिति एवं संहार के प्रति निमित्तभूत है। इनके मतानुसार ब्रह्म ही संसार के समस्त पदार्थों का उपादान कारण है। ईश्वरवाद की मान्यतानुसार जड़ और चेतन द्रव्यों के पारस्परिक संयोजन में ईश्वर निमित्तकारण है। ईश्वर की इच्छा के बिना जगत् का कोई भी कार्य नहीं हो सकता। वह विश्व का नियन्त्रक एवं नियामक है।
पुरुषवाद का बीज वैदिककाल से ही प्राप्त होता है। इस मत का संकेत या उल्लेख उपनिषदों, पुराणों, स्मृतियों तथा वैदिक दर्शनों में मिलता है। वैदिक युग में मनुष्य का एक वर्ग अग्नि, वायु, जल, आकाश, विद्युत, दिशा आदि शक्तिशाली तत्त्वों का उपासक था, प्रकृति को ही देव मानता था। वे मानते थे कि मनुष्य में इतनी शक्ति कहाँ जो इतने विशाल ब्रह्माण्ड की रचना कर सके, देव ही शक्तिशाली है। इस धारणा
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