SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण नाभुक्तं क्षीयते कर्म, कल्पकोटिशतैरपि। अवश्यमेव भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम्।। करोड़ों कल्प व्यतीत हो जाएँ तो भी किए हुए शुभाशुभ कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। किए हुए कर्मों का फल तो अवश्य भोगना पड़ता है। मीमांसा दर्शन में यज्ञ कर्म को अदृष्ट मानकर भी इसी पूर्वकृत कर्मवाद की ओर संकेत किया है। जैन और बौद्ध दर्शन भी पहले किए हुए कमों के अनुसार फल की प्राप्ति को स्वीकार करते हैं, यही नहीं वेदान्त और अन्य वैदिक दर्शन भी कर्म की महत्ता का प्रतिषेध नहीं करते। जैन दर्शन आत्मा को ही कर्म का कर्ता एवं भोक्ता स्वीकार करता है- "अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। १३६ पुरुषार्थवाद/पुरुषवाद सिद्धसेनसूरि ने 'कालो सहाव णियई..' गाथा में 'पुरिसे' शब्द का प्रयोग किया है। जो पुरुषवाद को संकेतित करता है, किन्तु उत्तरकालीन जैनाचार्यों ने इसे पुरुषकार अथवा पुरुषार्थवाद के रूप में विकसित किया है। यहाँ पहले पुरुषार्थवाद एवं फिर पुरुषवाद पर विचार प्रस्तुत हैं पुरुषार्थवाद- पुरुष या जीव तत्त्व का इच्छापूर्वक होने वाला जो प्रयत्न या प्रवृत्ति है, वह पुरुषार्थ कहलाता है। यहाँ पुरुषार्थ का अर्थ प्रयत्नमात्र से अधिक व्यापक है। प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई पुरुषार्थ प्रतिसमय पाया जाता है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ जड़ हो या चेतन, छोटा हो या बड़ा, अपनी एक अवस्था विशेष को तजकर दूसरी अवस्था विशेष को धारण करने के प्रति या एक स्थान को तजकर अन्य स्थान को प्राप्त करने के प्रति बराबर झुकने का प्रयत्न कर रहा है। जड़ का वीर्य जड़ात्मक और चेतना का वीर्य चेतनात्मक होता है। इस वीर्य गुण की पर्याय या प्रवृत्ति विशेष को पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुषार्थवाद का अपना दर्शन है। उसका कहना है कि संसार के प्रत्येक कार्य के लिए प्रयत्न होना जरूरी है। बिना पुरुषार्थ के कोई भी कार्य सफल नहीं होता है। संसार में जो कुछ भी उन्नति होती है, वह सब पुरुषार्थ का परिणाम है। यदि पेट में भूख मालूम पड़ती है तो उसकी निवृत्ति के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा, भूख की शांति विचारों से नहीं हो जाएगी। संसार में जितने भी पदार्थ हैं, उनका स्वाभावादि अपना अपना है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति पुरुषार्थ के बिना नहीं हो सकती है। इसलिए कहा है "कुरु कुरु पुरुषार्थ निवृतानन्द हेतोः" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy