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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ५५ मनुष्यों को नियति के कारण जो भी शुभ और अशुभ प्राप्त होना है, वह अवश्य प्राप्त होता है। प्राणी कितना भी प्रयत्न कर ले, लेकिन जो नहीं होना है, वह नहीं ही होगा और जो होना है, उसे कोई रोक नहीं सकता है। सब जीवों का सब कुछ नियत है और वह अपनी स्थिति के अनुसार होगा। पूर्वकृत कर्मवाद
जीव के द्वारा पहले किए गए कर्म के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। पूर्व जन्म में किए हुए शुभ कर्मों का शुभ फल और अशुभ कर्मों का अशुभ फल प्राप्त होता है। जीव के सुखी-दुःखी बनने में, जन्म-मरण में, ज्ञानी-अज्ञानी होने में, अमीर-गरीब बनने में, रूपवान-कुरूपवान होने आदि में पूर्वकृत कर्मों का योगदान स्वीकार करने की मान्यता 'पूर्वकृत कर्मवाद' के नाम से जानी जाती है।
एक ही माँ के उदर से एक ही काल में उत्पन्न बच्चों में एक कुरूप और दूसरा सुरूप, एक बुद्धिमान और दूसरा मूर्ख, एक मंद और दूसरा चतुर, एक सौभाग्यशाली और दूसरा मन्दभागी होने में पूर्व कर्म के अतिरिक्त स्वभाव, काल आदि कोई कारण नहीं हो सकता।
राजा को रंक और रंक को राजा बनाने में, इन्द्रिय और प्राणशक्ति का हरण करने में, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जाति में उत्पन्न होने में तथा पंचेन्द्रिय से एकेन्द्रिय जाति में जाने में तथा शरीर, स्वास्थ्य, मनोबल तथा बुद्धिविकास में भी कर्म निमित्त बनते हैं। महाभारत के ग्यारहवें पर्व में धृतराष्ट्र को विदुर ने ठीक ही कहा है कि
वैचित्रवीर्य! साध्यं हि, दुःखं वा यदि वा सुखम्।
प्राप्तुवन्तीह भूतानि, स्वकृतेनैव कर्मणा।।१३५ अर्थात् हे वैचित्रवीर्य! साध्य सुख और दुःख प्राणी अपने किए हुए कर्म से ही प्राप्त करते हैं।
बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राटों को अपने पद से हटाकर अप्रतिष्ठान नामक महानारकावास पहुँचाने में, कई श्लाघनीय पुरुषों को विपत्ति के महाचक्र में डालने में, रामचन्द्र जी को चौदह वर्ष तक वनवास में भटकाने में, ऋषभदेव जी को १ वर्ष पर्यन्त आहार नहीं मिलने में, परम वीतराग सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान् महावीर प्रभु को परमात्म दशा में पहुँचाने में गोशालक को निमित्त बनाकर भगवान से अपना बदला लेने में, गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर अंगारे रखवाने में और खंदक ऋषि को घानी में पिलवाने में कर्म का ही हाथ है। कहा भी है कि
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