SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण उदयति यदि भानुः पश्चिमायां दिशायां। प्रचलति यदि मेरुः शीततां याति बह्निः।। विकसति यदि पदां पर्वताग्रे शिलायां। तदपि न चलतीयं भाविनी कमरेखा।। अर्थात् सूर्य पूर्व में उदय होता है, परन्तु वह भी यदि कभी पश्चिम में उदय होने लगे, अटल माना जाने वाला सुमेरू पर्वत भी कभी चलायमान हो जाए, अग्नि उष्णता छोड़कर शीतल हो जाए, पर्वत की शिला पर कमल उत्पन्न हो जाए- ये सब अनहोनी भी कदाचित् देवयोग से हो जाए, परन्तु भवितव्यता स्वरूप जो कमरेखा बन चुकी, वह तो अचल, अटल ही रहती है। वह किसी भी शक्ति से अन्यथा नहीं हो सकती। कभी-कभी बिना प्रयत्न के भी कार्य में सफलता देखी जाती है तो कभी अधिक प्रयत्न करने पर भी असफलता प्राप्त होती है। सभी कारणों के विद्यमान होने पर भी कभी-कभी कार्योत्पत्ति संभव नहीं हो पाती है। इस प्रकार कारण सादृश्य रहते हुए भी उसके फल में वैसादृश्य देखा जाता है, इसकी एक मात्र कारक नियति हो सकती है। किसी दुर्घटना के घटित होने पर भी सबकी मृत्यु नहीं होती, अपितु कुछ लोग ही मरते हैं और कुछ लोग जीवित रह जाते हैं। ऐसे प्रसंग पर यह मानना उपयुक्त है कि प्राणी का जीवन और मरण नियति पर निर्भर है। जिसका मरण जब नियत होता है तभी उसकी मृत्यु होती है और जब तक जिसका जीवन शेष होता है तब तक मृत्यु के प्रसंग बार-बार आने पर भी वह जीवित रहता है, उसकी मृत्यु नहीं होती। नियतिवाद के अनुसार सृष्टि का संचालन, जीवों के जन्म-मरण, सुखदुःख आदि सब नियत क्रम से ही होते हैं। इसके अनुसार सभी घटनाएँ पहले से निश्चित होती हैं। महाकवि कालिदास ने भी 'भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र' वाक्य के द्वारा नियति को ही प्रस्तुत किया है। नियतिवाद के समक्ष पुरुषार्थ, बल, वीर्य, काल, स्वभावादि का कोई पृथक् महत्त्व नहीं है। उपासकदशांग३१, व्याख्याप्रज्ञप्ति३२ और सूत्रकृतांग१३३ में भी नियतिवादियों का मन्तव्य प्राप्त होता है। नियतिवादी दृष्टिकोण के संबंध में सूत्रकृतांग टीका में संकेत किया गया है"प्राप्तव्यो नियति बलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि प्रयत्ने नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः।।२३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy