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________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ५३ अश्वघोष कृत बुद्धचरित में भी स्वभाववाद के मत को पुष्ट करते हुए कहा गया है कि काँटों का नुकीलापन, मृग और पक्षियों के विविध वर्ण, हंस का श्वेत वर्ण, कौए का कालापन, तोतों का हरा वर्ण यह सब स्वभाव से ही है।१२९ महाभारत में भी स्वभाववाद की चर्चा प्राप्त होती है। सभी कुछ स्वभाव से निर्धारित है। व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। सभी तरह के भाव और अभाव स्वभाव से प्रवर्तित एवं निवर्तित होते हैं। पुरुष के प्रयत्न से कुछ भी नहीं होता।१३० वसंत ऋतु में वृक्षों का फूलने-फलने का स्वभाव है तो फलते-फूलते हैं। मछलियों का पानी में तैरने का, पक्षियों का आकाश में उड़ने का, सर्पो का छाती के बल रेंगने का, पशुओं का चार पैरों से चलने का, मनुष्यों का दो पैरों से चलने का, मनुष्य के बालकों का साल या दो साल में बोलने-चलने का, पक्षियों का अंडे से जन्म होने का, बंदरों का कूदने का, अन्न में भूख मिटाने और शरीर के पोषण का, पानी में तृष्णा दूर करने का, बड़ के वृक्ष में छोटे फल देने का और तुंबी की लता में बड़े फल देने का, केर के वृक्ष में पत्र न होने का, नीम में कड़वापन होने का और ईख में मीठापन होने का, जहर में प्राण हरने का, मदिरा में बेहोश करने का, मीढण (एक प्रकार का फल विशेष) में उलटी कराने का, संठ में वायु हरने का स्वभाव है। इन स्वभावों से ही वे कार्य हो सकते हैं। स्वभाव के विरुद्ध किसी से कुछ नहीं बनता। कुछ बातों में देश स्वभाव कार्य करता है, जैसे- अफ्रीका के हब्शियों की चमड़ी श्याम वर्ण की और यूरोप के निवासियों की चमड़ी गौर वर्ण की होती है। यह देश और जाति का स्वभाव है। द्रव्य का संयोग और विभाग होना स्वभाव है और उसी कारण आत्मा का संसार और मोक्ष भी स्वभावतः ही होता है। जैसे अशुद्ध सोने का शुद्धीकरण दो प्रकार से होता है- क्रिया और अक्रिया से। इस प्रकार स्वभाववाद की स्थापना की गई है। नियतिवाद बौद्ध धर्म के पल्लवनकाल में नियतिवादी भी अपने मत का प्रचार कर रहे थे। भगवान महावीर के काल में भी गोशालक आदि नियतिवादी विद्यमान थे। निश्चित समय पर कार्य का होना नियति है अर्थात् जिस वस्तु को जिस समय, जिस कारण से तथा जिस परिणाम में उत्पन्न होना होता है, वह वस्तु उसी समय, उसी कारण से तथा उसी परिणाम में नियत रूप से उत्पन्न होती है। जगत् के सभी घटना क्रम नियत है इसलिए उनका कारण नियति को मानना चाहिए। अत: कहा गया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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