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________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ४९ समन्वय स्थापित किया है। उनके समकालीन उपाध्याय विनयविजय ने पाँच कारणों पर स्तवन की रचना की है। स्तवन की कतिपय पंक्तियाँ इस प्रकार हैं ओ पाँचे समुदाय मिल्या निण, कोई काज न सीझे। अंगुलीयोगे करतणी परे, जे बुझे तो रीझे रे।।११७ अर्थात् कालादि पाँच कारणों के समुदाय के मिले बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता है। जिस प्रकार अंगुलियों का योग होने पर ही हाथ से कार्य होता है उसी प्रकार पाँचों के समुदाय की अपेक्षा है। जो इस तथ्य को जान लेते हैं वे प्रसन्न होते हैं। आधुनिक काल में पंच समवाय की संस्थिति . १९वीं शती में स्थानकवासी परम्परा के संत श्री तिलोकऋषि ने सवैया छन्द में पंचवादी विषयक स्वरूप काव्य के अन्तर्गत काल आदि पाँच वादियों का विस्तार से निरूपण करते हुए अन्त में पंच समवाय सिद्धान्त की प्ररूपणा की है। इनकी कृति में पंच समवाय शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। मुझे अधीत ग्रन्थों में पंच समवाय शब्द का स्पष्टतः प्रथम प्रयोग इनकी रचना में प्राप्त हुआ है। संभव है उनके समय यह शब्द प्रसिद्ध हो चुका था। पंच समवायं सिद्धान्त की सिद्धि में वे लिखते हैं पंच समवाय मिल्या होत है कारज सन। एक समवाय मिल्या कारज न होइए। पंच समवाय माने सो ही समदृष्टि जीव। अनुभो लगाय दूर दृष्टि कर जोइए।।१८ बीसवीं शती में शतावधानी रत्नचन्द्र जी महाराज भी स्थानकवासी परम्परा के प्रभावशाली एवं विद्वान संत हुए हैं। कारण संवाद नामक अपनी कृति में उन्होंने राजा, मंत्री, पंडित, कालवादी, स्वभाववादी, नियतिवादी, पूर्वकृतकर्मवादी और पुरुषार्थवादी को पात्र बनाकर रोचक संवाद प्रस्तुत किया है। जिसमें उन्होंने पाँच वादियों के पक्ष को बोधगम्य बनाकर प्रस्तुत किया है तथा अन्त में पाँचों का समन्वय स्थापित किया है। बीसवीं शती में कानजी स्वामी ने कालनय, स्वभावनय, नियतिनय, पूर्वकृतकर्मनय और पुरुषार्थनय के आधार पर पंच समवाय सिद्धान्त का निरूपण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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