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५० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
वर्तमान में लगभग सभी जैन सम्प्रदायों के आचार्य, संत और विद्वान् जैनदर्शन के पंच समवाय सिद्धान्त को अंगीकार कर समय-समय पर उसकी अपने प्रवचनों एवं लेखों के माध्यम से पुष्टि करते हैं। आधुनिक चिन्तकों में आचार्य महाप्रज्ञ ने पंच समवाय को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव नामक चार दृष्टियों का विकास स्वीकार किया है। वे लिखते हैं- "द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये चार दृष्टियाँ जैन दर्शन में उपलब्ध हैं, अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं है। उत्तरकाल में जैनाचार्यों ने इनका विकास किया। चार आदेशों के स्थान पर पाँच समवायों का विकास हुआ हैस्वभाव, काल, नियति, पुरुषार्थ, भाग्य या कर्म। ये पाँच समवाय चार दृष्टियों का विकास है।११९
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले अन्य आचार्य, संत एवं विद्वान् इस प्रकार हैं- आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज, आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, पं. श्री समर्थमल जी महाराज, दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज, आचार्य श्री विद्यानन्द जी महाराज, आचार्य श्री नानालाल जी महाराज, आचार्य श्री भुवन भान् सूरीश्वर जी महाराज, आचार्य श्री विजयरत्नसुन्दरश्रीजी महाराज, आचार्य श्री विजयमुनि जी म.सा., पं. सुखलाल संघवी, पं. बेचरदास दोशी, पं. दलसुख मालवणिया, श्रुतधर श्री प्रकाशमुनि जी म.सा., महोपाध्याय श्री मानविजय जी महाराज, श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज, डॉ. सागरमल जैन, डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल आदि। यहाँ समस्त आचार्यों, मुनिवयों एवं विद्वत्जनों के नामों की गणना संभव नहीं, स्थूल रूप से ही यहाँ कुछ नाम गिनाए गए हैं। यह कहा जा सकता है कि जैन कारणवाद के संदर्भ में पंच समवाय का कोई भी जैनाचार्य या जैन विद्वान् विरोध नहीं करते हैं। समर्थन में सबका साहित्य प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि साहित्य का लेखन कुछ ही आचार्यों, संतों एवं विद्वानों द्वारा किया जाता है, सबके द्वारा नहीं। तथापि अपने प्रवचनों एवं प्रश्नोत्तरों के माध्यम से सब पंच समवाय का समर्थन करते हुए ही दृष्टिगोचर होते हैं, विरोध करते हुए नहीं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि आधुनिक युग में पंच समवाय का सिद्धान्त सुप्रतिष्ठित एवं सर्व जैन सम्प्रदायों द्वारा मान्य सिद्धान्त है।
पंच समवाय सिद्धान्त सभी सम्प्रदायों को मान्य एवं प्रसिद्ध होने पर भी पंच समवाय शब्द का प्रयोग अधिक प्राचीन नहीं है। जैसे कि पूर्व में चर्चा की गई है कि १९वीं शती के तिलोकऋषि जी महाराज के पद्यों में पंच समवाय शब्द का प्रयोग भूरिश: हुआ और उस समय यह शब्द प्रसिद्ध हो चुका था। किन्तु यह ज्ञात नहीं हो सका है कि उनके पूर्व इस शब्द का प्रयोग किसके द्वारा किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो पंच
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