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________________ ४८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण सिद्धसेन सूरि विरचित 'कालो णियई.......' गाथा पर विस्तार से टीका करते हुए अभयदेव सूरि ने कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पूर्वकृत कर्मवाद और पुरुषवाद के पूर्व पक्ष को उपस्थापित किया है तथा उनकी एकान्तकारणता का खण्डन करते हुए पाँचों के समुदित रूप को समीचीन ठहराया है। पाँचों वादों का निरसन करते हुए वे उपसंहार वाक्य में कहते हैं काल-स्वभाव-नियति पूर्वकृतपुरुषकारणरूपा एकान्ताः सर्वेऽपि एकका मिथ्यात्वं। त एव समुदिताः परस्पराऽजहवृत्तयः सम्यक्त्वरूपतां प्रतिपद्यन्ते इति तात्पर्यायार्थः।।१४ अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष ये सब एकान्तवाद मिथ्या हैं तथा ये सब समुदित रूप से परस्पर अजहद् वृत्ति से सम्यक्त्व रूपता को प्राप्त करते हैं। . कुन्दकुन्दाचार्य के टीकाकार अमृतचन्द्राचार्य (१०वीं शती) ने प्रवचनसार की तत्त्व प्रदीपिका की टीका के अन्त में द्रव्य नय, पर्याय नय, अस्तित्व नय, नास्तित्व नय आदि ४७ नयों के अन्तर्ग काल नय, स्वभाव नय, नियति नय, दैव नय और पुरुषकार नय की भी चर्चा की है। १५ इससे पंच कारण समुदाय की अथवा पंच समवाय की तो सिद्धि नहीं होती, किन्तु जैन दर्शन में इन नयों के समन्वय की दृष्टि अवश्य पुष्ट होती है। बारहवीं-तेरहवीं शती में मल्लधारी राजशेखर सूरि ने भी पंच कारण समुदाय की पुष्टि की है कालस्वभावनियति - चेतनेतरकर्मणाम्। भवितव्यता पाके, मुक्तिर्भवति नान्यथा।।११६ काल, स्वभाव, नियति, पुरुषकार-उद्यम और पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म- इन पाँच कारणों का योग मिलने पर ही जीव की मुक्ति होती है, इन पाँच कारणों के बिना मुक्ति नहीं मिलती। उसके पश्चात् सत्रहवीं शती में उपाध्याय यशोविजय और उपाध्याय विनयविजय की कृतियों में काल आदि पाँच कारणों को स्थान दिया गया है। उपाध्याय यशोविजय ने हरिभद्र सूरि के शास्त्रवार्ता समुच्चय पर टीका करते समय काल आदि पाँच कारणों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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