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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ४७ इह मुग्गरंधणादिवि ता सब्बे समुदिता हेऊ।।३।। जह णेगलक्खाणगुणा वेरुलियादी मणी विसंजुत्ता। रयणावलिववएसं ण लहंति महग्धमुल्लावि।।४।। तहणिययवाद सुविणिच्छियावि अण्णोऽण्णपक्खनिरवेक्खा। सम्मइंसणसहं सब्वेऽवि णया ण पाविति।।।५।। जह पुण ते चेव मणी जहा गुणविसेसभागपडिनद्धा। रयणावलित्ति भण्णइ चयंति पाडिक्कसण्णाओ।।६।। तह सव्वे णयवाया जहाणुरूवविणिउत्तवत्तव्वा। सम्मइंसणसदं लभंति ण विसेससण्णाओ।।७।। तम्हा मिच्छट्टिी सब्वेवि णया सपक्खापडिबद्धा। अण्णाण्णनिस्सिया पुण हवंति सम्मत्त सम्भावा।।८।।१२
उपर्युक्त गाथाओं का तात्पर्य है कि काल, स्वभाव, नियति और पुरुष ये एक साथ मिलकर ही सब कार्यों के साधक होते हैं। अकेले काल आदि से कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता है। जिस प्रकार मुंग उबालने में आग, पानी, लकड़ी, बर्तन आदि सम्मिलित रूप से कारण होते हैं तथा जिस प्रकार उत्तम लक्षणों से युक्त वैदुर्य मणि आदि परस्पर मिलकर ही रत्नावली कहे जाते हैं इसी प्रकार कालवाद नियतिवाद आदि विभिन्न मत परस्पर मिलकर ही कार्य की उत्पत्ति में सहायक होते हैं। जो अपने पक्ष में कदाग्रह रखते हैं वे सभी नयवाद मिथ्यादृष्टि हैं परन्तु वे ही परस्पर मिलकर सम्यक् हो जाते हैं।
शीलांकाचार्य द्वारा उद्धृत गाथाएँ प्राचीन प्रतीत होती हैं जिनमें जैन दर्शन के अनेकान्तवाद और नयवाद भी प्रतिबिम्बित है। उसी का फल कारणवाद के संदर्भ में कालादि कारणवादों का समन्वय है।
दसवीं शती में राजगच्छीय तर्क पंचानन अभयदेव सूरि ने सिद्धसेन दिवाकर विरचित सन्मति तर्क प्रकरण पर विशाल टीका का निर्माण किया है, जो तत्त्वबोधविधायिनी के नाम से प्रसिद्ध है। यह टीका अत्यन्त प्रौढ एवं क्लिष्ट है। प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड पर भी इस टीका का प्रभाव परिलक्षित होता है। डॉ. धर्मचन्द जैन ने अभयदेव सूरि को प्रभाचन्द्र का पूर्ववर्ती सिद्ध किया है।१२ अभयदेव सूरि विरचित यह टीका भारतीय न्याय ग्रन्थों की क्लिष्ट टीकाओं के तुल्य है।
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