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४६ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
बीजविंशिका में हरिभद्रसूरि ने पाँचों कारणों का समन्वय करते हुए कहा है
तहभब्वत्तं जं कालनियइपुवकयपुरिसकिरियाओ।
अक्खिाबड़ तहसहावं ता तदधीणं तयंपि भवे।।१०९
जिस प्रकार काल, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का होना आवश्यक है उसी प्रकार स्वभाव का होना आवश्यक है, क्योंकि वे भी उसके अधीन है।
उपदेश पद में हरिभद्र (७००-७७० ई. शती) ने समवाय के अर्थ में कलाप शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है
सबम्मि चेव कज्जे एस कलावो बुहहिं निहिट्ठो।
जणगत्तेण तओ खलु परिभावेयब्बओ सम्म।।१०
ज्ञानियों के द्वारा सभी कार्यों में काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष का कलाप (समवाय) निर्दिष्ट किया गया है। इसलिए इसे कारण रूप में सम्यक्तया जान लेना चाहिए।
हरिभद्रसूरि के अनन्तर शीलांकाचार्य (९-१०वीं शती) ने सूत्रकृतांग की टीका में काल आदि पंच कारणों की चर्चा करते हुए उनकी एकांत कारणता का निरसन किया है तथा उनके समुदित स्वरूप को स्वीकार किया है
कालादीनामपि समुदितानां परस्परसव्यपेक्षाणां।
कारणत्वेनेहाश्रयणात्सम्यक्त्वमिति।।११ शीलांकाचार्य ने सूत्रकृतांग के बारहवें अध्ययन की टीका में कालादि की कारणता के संबंध में आठ गाथाएँ उद्धृत की हैं। जिनमें से प्रथम गाथा तो सिद्धसेन सूरि के सन्मति तर्क प्रकरण की है किन्तु अन्य गाथाओं के स्थल ढूंढने पर भी नहीं मिल सके हैं। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं
कालो सहाव णियई पुवकयं पुरिस कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेव उ समासओ होंति सम्त।।१।। सब्वेवि य कालाई इह समुदायेण साहगा भणिया। जुज्जति य एमेव य सम्म सव्वस्स कज्जस्स।।२।। न हि कालादिहितो केवलएहिं तु जायए किंचि।
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