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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ४५ पंच समवाय के विकास में सिद्धसेन सूरि एवं उत्तरवर्ती आचार्यों का योगदान
पाँचवीं शती ईस्वी में प्रसिद्ध जैन दार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर ने अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद की स्थापना करते हुए उस समय प्रचलित कारणवादों में से पाँच का समन्वय जैन दर्शन में स्वीकार करते हुए सन्मति तर्क ग्रन्थ में लिखा है
कालो सहाव नियई पुबकयं पुरिसे कारणेगंता।
मिच्छत्तं ते चेव, समासओ होति सम्मत्त।।०६
अर्थात् काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुष की एकान्त कारणता मिथ्यात्व है और इनकी सामूहिक कारणता सम्यक्त्व है।
जैन दर्शन के पंच समवाय सिद्धान्त की मूल सिद्धसेन सूरि की यह गाथा ही रही है। क्योंकि इसके पूर्व पाँचों कारणों के समुदाय का एक साथ उल्लेख किसी भी जैनागम एवं जैन दार्शनिक-कृति में प्राप्त नहीं होता। सिद्धसेन सूरि की यह गाथा ही आगे चलकर 'पंच समवाय' सिद्धान्त के रूप में परिणत हुई प्रतीत होती है। आगम से भी इस गाथा का विरोध नहीं है इसलिए उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन किया है।
सिद्धसेन सूरि ने काल आदि पाँच कारणों के एकान्त को मिथ्या एवं समास (समन्वित रूप) को सम्यक्त्व अवश्य कहा, किन्तु उन्होंने पंच समवाय शब्द का प्रयोग नहीं किया है। पंच समवाय शब्द का प्रथम प्रयोग १९वीं शती में रचित साहित्य में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। उसके पूर्व समवाय के लिए समुदाय, समुदित, कलाप आदि शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है।
पंच कारणों को सम्मिलित रूप से स्वीकार करने की परम्परा को प्रमुख श्वेताम्बर जैन दार्शनिक हरिभद्र सूरि (आठवीं शती) ने इसे आगे बढ़ाया है। उन्होंने शास्त्रवार्ता समुच्चय में काल आदि के समुदाय को कारण मानने के मत का समर्थन करते हुए कहा है
अत: कालादयः सर्वे, समुदायेन कारणम्।
गर्भादेः कार्यजातस्य, विज्ञेया न्यायवादिभिः।।०७ हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु में वरबोधि लाभ के निरूपण के समय भव्यत्व के साथ काल, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ को भी स्थान दिया है।१०८
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