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किञ्चित् प्रास्ताविक इनका नाम मणिक्यचन्द्र सूरि था और गुजरातकी राजधानी अणहिलपुरमें रहते हुए इतने यह व्यांज्या बनाई थी । माईसोर संस्कृत ग्रन्थावलि, एवं आनन्दाश्रम संस्कृत ग्रन्थावलि आदि प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं द्वारा इसका प्रकाशन भी हो चुका है।
विक्रमकी १८ वीं शताब्दीके प्रथम पादमें विद्यमान महान् जैन तार्किक विद्वान् महोपाध्याय यशोविजय गणी द्वारा भी इस ग्रन्थ पर एक बहुत ही प्रौढ एवं पाण्डित्यपूर्ण विशद व्याख्या बनाई जानेका उल्लेख मिलता है । 'काव्यप्रकाशखण्डन'के नामसे प्रस्तुत रचनारूप आलोचनात्मक विवृति भी, एक ऐसे ही सुप्रसिद्ध जैन यतिके, इस ग्रन्थ पर किये गये गंभीर अध्ययन - मननके परिणामका फलस्वरूप है। इस आलोचनात्मक विवृतिके कर्ता महोपाध्याय सिद्धिचद्रने, जैसा कि इस कृतिमें (पृ. ३ पर) स्वयं सूचित किया है, प्रस्तुत रचनाके पूर्व ही इस ग्रन्थ पर, एक बृहत्टीका भी बनाई है जो अद्यापि उपलब्ध नहीं हुई है। इन सब बातोंसे ज्ञात होता है कि काव्यप्रकाश अन्थ जैन विद्वानोंमें भी खूब पठनीय और मननीय बना है।
महोपाध्याय सिद्धिचन्द्र गणीने प्रस्तुत रचना, एक आलोचनात्मक दृष्टिसे की है। काव्यप्रकाशमें प्रतिपादित जिन विचारोंके विषयमें, ग्रन्थकारका कुछ मतभेद रहा है, उस मतभेदको प्रकट करनेके लिये, इसकी रचना की गई है; न कि उस सर्वमान्य ग्रन्थगत सभी पदार्थोंका खण्डन इसमें अभिप्रेत है । महाकवि मम्मटने काव्यरचना विषयक जो विस्तृत विवेचन अपने विशद ग्रन्थमें किया है उसमेंसे किसी लक्षण, किसी उदाहरण, किसी प्रतिपादन एवं किसी निरसन संबन्धी उल्लेखको, सिद्धिचन्द्रने ठीक नहीं माना है और इसलिये उनने अपने मन्तव्यको व्यक्त करनेके लिये प्रस्तुत रचनाका निर्माण किया है। इसी तरह, काव्यप्रकाशके कई जूने - नये व्याख्याकारोंके भी जिन किन्ही विचारोंके साथ इनका मतभेद हुआ है, उन विचारोंका भी इनने इसमें निरसन किया है। ऐसा करनेमें ग्रन्थकारका हेतु केवल पदार्थतत्त्वमीमांसा प्रदर्शित करनेका रहा है न कि किसी प्रकारका खमताग्रह या परदोषान्वेषणका भाव रहा है। केवल 'कौतुकाद्' अर्थात् कौतुकमात्रकी दृष्टिसे यह प्रयास किया गया है ऐसा उनका कथन है । अतः एव यह रचना इस दृष्टिसे विद्वन्जनोंके लिये अवश्य अवलोकनीय प्रतीत होगी।
ग्रन्थगत वस्तुका सारभूत परिचय प्रो. परिखने अपनी प्रस्तावनामें अच्छी तरह आलेखित किया है । प्रन्थकर्ताके जीवनके विषयमें, तो उन्हींका बनया हुआ भानुचन्द्र च रित नामक विशिष्ट ग्रन्थ, जो इस सिंघी जैन ग्रन्थमालाके १८ वें पुष्पके रूपमें छपा है उसमें यथेष्ट लिखा गया है । अतः जिज्ञासु जनोंको उसका अवलोकन करना योग्य होगा।
प्रस्तुत ग्रन्थका संपादन, मेरे जिन विद्वान् मित्रने किया है वे प्रो. श्रीयुत रसिकलाल छो. परिख संस्कृत काव्यशास्त्रके एक बहुत ही प्रौढ विद्वान्, मर्मज्ञ विवेचक, और आदर्श अध्यापक हैं । गुजरातके इनेशिने उच्च कोटिके विद्वानों में इनका एक अग्रिम स्थान है। गुजरात विद्यासभा.
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