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________________ काध्यप्रकाशखण्डन द्वारा संचालित 'उच्च अध्ययन एवं संशोधनात्मक प्रतिष्ठान' (इन्स्टीट्युट ऑफ हायर स्टडीज एण्ड रीसर्च ) के ये अध्यक्ष और निर्माता हैं। अनेक वर्षों पूर्व ही इनने, कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यके बनाये हुए, का व्य प्रकाश सदृश ही काव्यशास्त्र विषयक सुप्रमाणभूत, का व्या हुशासन नामक विशाल ग्रन्थका सुसंपादन किया है जो विद्वानोंमें एक आदरपात्र अध्ययनकी वस्तु बना हुआ है । ये काव्यशास्त्रके विशिष्ट अभ्यासी हैं एवं गुजरातीके एक अच्छे कवि और लेखक हैं। __मेरे तो ये एक अतीव आत्मीयभूत बन्धुजन हैं; अतः इनके विषयमें विशेष कुछ कहनेमें मुझे संकोच होना स्वाभाविक है । सिंघी जैन ग्रन्यमालाके कार्यके साथ इनका प्रारंभसे ही घनिष्ठ संबन्ध रहा है । मेरे साहित्य विषयक अत्यधिक कार्यभारको कुछ हलका करने की दृष्टिसे, ये सदैव प्रकट- अप्रकट रूपमें, मुझे अपना स्नेहपूर्ण सहयोग देते रहते हैं। साथमें अपने प्रतिष्ठानके अन्यान्य सनकक्ष विद्वान सहयोगियों द्वारा भी, मेरे कार्य में, यथाप्रसंग, सहायभूत हो कर, मुझे अपनी ममताके बन्धनसे सुबद्ध बनाते रहते हैं। मेरे साहित्यिक जीवनकी बाल्याव. स्थासे ही ये बालमित्र-से बने हुए हैं, और अब जीवनकी इस शान्त सन्ध्याके समय भी, अपना वैसा ही अकृत्रिम स्नेहभाव बताते हुए, एक सुविनीत शिष्यकी तरह, मेरा हाथ पकड कर, मुझे अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंचनेमें सहायक हो रहे हैं । मैं इनके प्रति अपना क्या कृतज्ञभाव प्रकट करूं ? 'सहवीर्य करवा वहे' - इस महावाक्यवाली प्रार्थनाका स्मरण करते हुए मैं विराम लेना चाहता हूं। शरत्पूर्णिमा, वि. सं. २०१० । २२, अक्टूबर, १९५३ । मुनि जिन विजय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002506
Book TitleKavya Prakasha Khandana
Original Sutra AuthorSiddharshi Gani
AuthorRasiklal C Parikh
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1953
Total Pages148
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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