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. अकलपन्थत्रय
[अन्य . का गृहीत होना या न होना प्रमाणान्तरता का प्रयोजक नहीं हो सकता । संभव नामका प्रमाण यदि अविनाभावप्रयुक्त है; तो उसका अनुमान में अन्तर्भाव होगा। यदि अविनाभावप्रयुक्त नहीं है; तब तो वह प्रमाण ही नहीं हो सकता । ऐतिह्य नामका प्रमाण यदि आप्तोपदेशमूलक है, तो आगमनामक प्रमाण में अन्तर्भूत होगा। यदि आप्तमूलत्व सन्दिग्ध है; तो वह प्रमाणकोटि में नहीं आ सकता। अभाव नामका प्रमाण यथासंभव प्रत्यक्ष, प्रत्यभिज्ञान तथा अनुमानादि प्रमाणों में अन्तर्भूत समझना चाहिए । इस तरह परपरिकल्पित प्रमाणों का अन्तर्भाव होने पर प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही मूल प्रमाण हो सकते हैं ।
प्रमाणाभास-अविसंवादि ज्ञान प्रमाण है, अत: विसंवादि ज्ञान प्रमाणाभास होगा। यहाँ अकलंक देव की एक दृष्टि विशेषरूपसे विचारणीय है। वे किसी ज्ञान को सर्वथा विसंवादि नहीं कहते । वे कहते हैं कि-जो ज्ञान जिस अंश में अविसंवादि हो वह उस अंश में प्रमाण तथा विसंवादि-अंश में अप्रमाण होगा। हम किसी भी ज्ञान को एकान्त से प्रमाणाभास नहीं कह सकते । जैसे तिमिररोगी का द्विचन्द्रज्ञान चन्द्रांश में अविसंवादी है तथा द्वित्वसंख्या में विसंवादी है, अतः इसे चन्द्रांश में प्रत्यक्ष तथा द्वित्वांश में प्रत्याक्षाभास कहना चाहिए। इस तरह प्रमाण और प्रमाणाभास की संकीर्ण स्थिति रहने पर भी जहाँ अविसंवाद की प्रकर्षता हो वहाँ प्रमाण व्यपदेश तथा विसंवाद के प्रकर्ष में प्रमाणाभास व्यपदेश करना चाहिए । जैसे कस्तूरी में रूप, रस आदि सभी गुण मौजूद हैं, पर गन्ध की प्रकर्षता होने के कारण उसमें 'गन्धद्रव्य' व्यपदेश होता है ।
ज्ञान के कारणों का विचार-बौद्ध के मत से चार प्रत्ययों से चित्त और चैत्तों की उत्पत्ति होती है-१ समनन्तरप्रत्यय, २ अधिपतिप्रत्यय, ३ आलम्बनप्रत्यय, ४ सहकारिप्रत्यय । ज्ञान की उत्पत्ति में पूर्वज्ञान समनन्तरकारण होता है, चक्षुरादि इन्द्रियाँ अधिपतिप्रत्यय होती हैं, पदार्थ आलम्बनप्रत्यय तथा आलोक आदि अन्य कारण सहकारिप्रत्यय होते हैं। इस तरह बौद्व की दृष्टि से ज्ञान के प्रति अर्थ तथा आलोक दोनों ही कारण हैं । उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि-'नाकारणं विषयः' अर्थात् जो ज्ञान का कारण नहीं होगा वह ज्ञान का विषय भी नहीं होगा। नैयायिकादि इन्द्रियार्थसन्निकर्ष को ज्ञान में कारण मानते हैं अतः उनके मत से सन्निकर्ष-घटकतया अर्थ भी ज्ञान का कारण है ही।
अर्थकारणतानिरास-ज्ञान अर्थ का कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि ज्ञान तो मात्र इतना ही जानता है कि 'यह अमुक अर्थ है'। वह यह नहीं जानता कि 'मैं इस अर्थ से उत्पन्न हुआ हूँ' । यदि ज्ञान यह जानने लगे कि 'मैं इस अर्थ से पैदा हुआ हूँ'; तब तो विवाद को स्थान ही नहीं रहता। जब उत्पन्न ज्ञान अर्थ के परिच्छेद में व्यापार करता है तब वह अपने अन्य इन्द्रियादि उत्पादक कारणों की सूचना स्वयं ही करता है; क्योंकि यदि ज्ञान उसी अर्थ से उत्पन्न हो जिसे वह जानता है, तब तो वह उस अर्थ को जान ही
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