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________________ प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना न्द्रियार्थदर्शी पुरुषविशेष ही मानना चाहिए । कर्चा का अस्मरणरूप हेतु जीर्ण खंडहर कुआ आदि चीजों से, जिनके कर्ता का किसी को स्मरण नहीं है, अनैकान्तिक है। अतः सर्वज्ञप्रतिपादित आगम को ही अतीन्द्रियधर्म आदि में भी प्रमाण मानना चाहिए। सर्वज्ञ के माने बिना वेद की प्रतिष्ठा भी नहीं हो सकती; क्योंकि अपौरुषेय वेद का व्याख्याता यदि रागी, द्वेषी और अज्ञानी पुरुष होगा तो उसके द्वारा किया गया व्याख्यान प्रमाणकोटि में नहीं आ सकेगा। व्याख्याभेद होने पर अन्तिम निर्णय तो धर्मादि के साक्षात्कर्ता का ही माना जा सकता है । परपरिकल्पित प्रमाणान्तर्भाव-नैयायिक प्रसिद्ध अर्थ के सादृश्य से साध्य के साधन को-संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञान को उपमान कहते हैं । जैसे किसी नागरिक ने यह सुना कि 'गौ के सदृश गवय होता है। वह जंगल में गया । वहाँ गवय को देखकर उसमें गोसादृश्य का ज्ञान करके गवयसंज्ञा का सम्बन्ध जोड़ता है और गवयशब्द का व्यवहार करता है। इसी संज्ञा-संज्ञिसम्बन्धज्ञान को उपमान प्रमाण कहते हैं । अकलंकदेव इस ज्ञान का यथासंभव अनुमान तथा प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भाव करते हुए कहते हैं कि-यदि प्रसिद्धार्थ का सादृश्य अविनाभावी रूपसे निर्णीत है तब तो वह लिंगात्मक हो जायगा और उससे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अनुमान कहलायगा । यदि अविनाभाव निर्णीत नहीं है; तो दर्शन और स्मरणपूर्वक सादृश्यात्मक संकलन होने के कारण यह सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में ही अन्तर्भूत होगा। सादृश्यप्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भूत होने पर भी यदि इस ज्ञान को स्वतन्त्ररूपसे उपमान नामक प्रमाण मानोगे; तो भैंस को देखकर 'यह गवय नहीं है' या 'यह गौ से विलक्षण है' इस वैलक्षण्यज्ञान को किस प्रमाणरूप मानोगे ? 'शाखादिवाला वृक्ष होता है' इस शब्द को सुनकर वैसे ही शाखादिमान् अर्थ को देखकर 'वृक्षोऽयम्' इस ज्ञान को किस नाम से पुकारोगे ? इसी तरह 'यह इससे पूर्व में है, यह इससे पश्चिम में है,' 'यह छोटा है, यह बड़ा है,' 'यह दूर है, यह पास हैं,' 'यह ऊँचा है, यह नीचा है, 'ये दो हैं, यह एक है' इत्यादि सभी ज्ञान उपमान से पृथक् प्रमाण मानने होंगे; क्योंकि उक्त ज्ञानों में प्रसिद्धार्थसादृश्य की तो गन्ध भी नहीं है । अतः जिनमें दर्शन और स्मरण कारण हो उन सभी संकलनरूप ज्ञानों को प्रत्यभिज्ञान कहना चाहिये, भले ही वह संकलन सादृश्य वैसदृश्य या एकत्वादि किसी भी विषयक क्यों न हो। उक्त सभी ज्ञान हितप्राप्ति, अहितपरिहार तथा उपेक्षाज्ञानरूप फल के उत्पादक होने से अप्रमाण तो कहे ही नहीं जा सकते । मीमांसक जिस साधन का साध्य के साथ अविनाभाव पहिले किसी सपक्ष में गृहीत नहीं है उस साधन से तत्काल में ही अविनाभाव ग्रहण करके होनेवाले साध्यज्ञान को अर्थापत्ति कहते हैं । इससे शक्ति आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का भी ज्ञान किया जाता है । अकलंकदेव ने अर्थापत्ति को अनुमान में अन्तर्भूत किया है; क्योंकि अविनाभावी एक अर्थ से दूसरे अर्थ का ज्ञान अनुमान तथा अर्थापत्ति दोनों में समान है । सपक्ष में व्याप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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