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[ ग्रन्थ
अकलङ्कप्रन्थत्रय
आदि पदार्थ भी नित्य सिद्ध हो जायँगे । शब्द की उपादानभूत शब्दवर्गणाएँ इतनी सूक्ष्म हैं कि उनकी प्रत्यक्ष से उपलब्धि नहीं हो सकती । इसी तरह शब्द की उत्तरपर्याय भी सूक्ष्म होने से अनुपलब्ध रहती है । क्रम से उच्चरित शब्दों में ही पद, वाक्य आदि संज्ञाएँ होती हैं । यद्यपि शब्द सभी दिशाओं में उत्पन्न होते हैं पर उनमें से जो शब्द श्रोत्र के साथ सन्निकृष्ट होते हैं वही श्रोत्र के द्वारा सुने जाते हैं, अन्य नहीं । श्रोत्र को प्राप्यकारी कहकर प्रकलंकदेव ने बौद्ध के 'श्रोत्र को भी चक्षुरिन्द्रिय की तरह अप्राप्यकारी मानने के' सिद्धान्त का खण्डन किया है । इसतरह शब्द ताल्वादि के संयोग से उत्पन्न होता है और वह श्रावणमध्यस्वभाव है । इसीमें इच्छानुसार संकेत करने से अर्थबोध होता है ।
वेदापौरुषेयत्व विचार - मीमांसक वेद को अपौरुषेय मानते हैं । उनका कहना है कि धर्म में वेदवाक्य ही प्रमाण हो सकते हैं । चूँकि प्रत्यक्ष से अतीन्द्रिय पुण्यपापादि पदार्थों के ज्ञान की संभावना नहीं है, अतः अतीन्द्रिय धर्मादि का प्रतिपादक वेद किसी पुरुष की कृति नहीं हो सकता। आज तक उसके कर्त्ता का स्मरण भी तो नहीं है । यदि कर्त्ता होता तो अवश्य ही उसका स्मरण होना चाहिए था । अतः वेद अपौरुषेय तथा अनादि है । अकलंकदेव ने श्रुत को परमात्मप्रतिपादित बताते हुए कहा है कि जब आत्मा ज्ञानरूप है तथा उसके प्रतिबन्धक कर्म हट सकते हैं, तब उसे अतीन्द्रियादि पदार्थों के जानने में क्या बाधा है ? यदि ज्ञान में अतिशय असम्भव ही हो; तो जैमिनि आदि को वेदार्थ का पूर्ण परिज्ञान कैसे संभव होगा ? सर्वत्र प्रमाणता कारणगुणों के ही आधीन देखी जाती है । शब्द में प्रमाणता का लानेवाला वक्ता का गुण है। यदि वेद अपौरुषेय है; तब तो उसकी प्रमाणता ही सन्दिग्ध रहेगी । जब प्रतीन्द्रियदर्शी एक भी पुरुष नहीं है; तब वेद का यथार्थ ज्ञान कैसे हो सकता है ? परम्परा तो मिध्यार्थ की भी चल सकती है । यदि समस्तार्थज्ञान में शंका की जाती है; तब चंचल - इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षादि प्रमाणों में कैसे विश्वास किया जा सकता है ? यदि पौरुषेय वेद अपने अर्थ का स्वतः विवरण करे; तब तो वेद के अंगभूत आयुर्वेद आदि के परिज्ञानार्थ मनुष्यों का पठन-पाठनरूप प्रयत्न निष्फल ही हो जायगा । अतः सामग्री के गुण-दोष से ही प्रमाणता और अप्रमाणता का सम्बन्ध मानना चाहिए। शब्द की प्रमाणता के लिए वक्ता का सम्यग्ज्ञान ही एकमात्र अंकुश हो सकता है। जब वेद का कोई अतीन्द्रियार्थद्रष्टा नियामक नहीं है; तब उसके अर्थ में अन्धपरम्परा ही हुई । आज तक अनादि काल बीत चुका, ऐसा अनाप्त वेद नष्ट क्यों नहीं हुआ ? अनादि मानने से या कर्त्ता का स्मरण न होने से ही तो कोई प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि लोक में बहुतसे ऐसे म्लेच्छादिव्यवहार या गाली गलौज आदि पाए जाते हैं, जिनके कर्त्ता का आज तक किसी को स्मरण नहीं है, पर इतने मात्र से वे प्रमाण तो नहीं माने जा सकते । इसलिए वेद के अर्थ में यथार्थता का नियामक अती
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