________________
प्रमाणनिरूपण ]
प्रस्तावना
६६
साधन और साधनाभास की व्यवस्था कैसे होगी ? इसी तरह आप्त के वचन के द्वारा अर्थबोध न हो तो आप्त और अनाप्त की व्यवस्था कैसे की जायगी ? यदि पुरुषों के अभिप्रायों में विचित्रता होने के कारण शब्द अर्थव्यभिचारी करार दिए जाँयँ; तो सुगत की सर्वज्ञता या सर्वशास्तृता में कैसे विश्वास किया जा सकेगा ? वहाँ भी अभिप्रायवैचित्र्य की शंका उठ सकती है । यदि अर्थव्यभिचार देखा जाने के कारण शब्द अर्थ में प्रमाण नहीं है; तो विवक्षा का भी तो व्यभिचार देखा जाता है, अन्य शब्द की विवक्षा में अन्य शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है । इस तरह तो शिंशपात्व हेतु वृक्षाविसंवादी होने पर कहीं कहीं शिंशपा की लता की संभावना से, अग्नि इन्धन से पैदा होती है पर कहीं मणि आदि से उत्पन्न होने के कारण सभी स्वभावहेतु तथा कार्यहेतु व्यभिचारी हो जायगे । अतः जैसे यहां सुविवेचित व्याप्य और कार्य, व्यापक और कारण का उल्लंघन नहीं कर सकते उसी तरह सुविवेचित शब्द अर्थ का व्यभिचारी नहीं हो सकता । अतः अविसंवादि श्रुतको अर्थ में प्रमाण मानना चाहिये । शब्द का विवक्षा के साथ कोई अविनाभाव नहीं है; क्योंकि शब्द, वर्ण या पद कहीं अवाञ्छित अर्थ को भी कहते हैं तथा कहीं वाञ्छित को भी नहीं कहते । यदि शब्द विवक्षामात्र के वाचक हों तो शब्दों में सत्यत्व और मिथ्यात्व की व्यवस्था न हो सकेगी; क्योंकि दोनों ही प्रकार के शब्द अपनी अपनी विवक्षा का अनुमान कराते हैं। शब्द में सत्यत्वव्यवस्था अर्थप्राप्ति के कारण होती है । विवक्षा रहते हुए भी मन्दबुद्धि शास्त्रव्याख्यानरूप शब्द का प्रयोग नहीं कर पाते तथा सुतादि अवस्था में इच्छा के न रहने पर भी शब्दप्रयोग देखा जाता है । अतः शब्दों में सत्यासत्यत्वव्यवस्था के लिए उन्हें अर्थ का वाचक मानना ही होगा ।
श्रुत के भेद - श्रुतके तीन भेद हैं-१ प्रत्यक्षनिमित्तक, २ अनुमाननिमित्तक, ३ आगमनिमित्तक । प्रत्यक्षनिमित्तक-परोपदेश की सहायता लेकर प्रत्यक्ष से होनेवाला । अनुमाननिमित्तक - परोपदेश के बिना केवल अनुमान से होनेवाला । आगमनिमित्तक - मात्र परोपदेश से होनेवाला । जैनतर्कवार्तिककार ने परोपदेशज तथा लिंगनिमित्तक रूपसे द्विविधः श्रुत स्वीकार करके कलंक के इस मत की समालोचना की है ।
शब्द का स्वरूप - शब्द पुद्गल की पर्याय है । वह स्कन्ध रूप है, जैसे छाया और तप । शब्द मीमांसकों की तरह नित्य नहीं हो सकता । शब्द यदि नित्य और व्यापक हो तो व्यञ्जक वायुओं से एक जगह उसकी अभिव्यक्ति होने पर सभी जगह सभी वर्णों की अभिव्यक्ति होने से कोलाहल मच जायगा । संकेत के लिए भी शब्द को नित्य मानना आवश्यक नहीं है; क्योंकि अनित्य होने पर भी सदृशशब्द में संकेत होकर व्यवहार हो सकता है । ' स एवायं शब्द : ' यह प्रत्यभिज्ञान शब्द के नित्य होने के कारण नहीं होता किंतु तत्सदृश शब्द में एकत्वाध्यवसाय करने के कारण होता है । अतः यह एकत्वप्रत्यभिज्ञान भ्रान्त है । यदि इस तरह भ्रान्त प्रत्यभिज्ञान से वस्तुओं में एकत्व सिद्ध हो; तो बिजली
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org