________________
अकलङ्कग्रन्थत्रय
[ प्रन्थ सकता है। एक प्रत्यक्ष से तो उभय का ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि श्रावणप्रत्यक्ष अर्थ को विषय नहीं करता तथा चाक्षुषादिप्रत्यक्ष शब्द को विषय नहीं करते। स्मृति तो निर्विषय एवं गृहीतग्राही होने से प्रमाण ही नहीं है । इसलिए शब्द अर्थ का वाचक न होकर विवक्षा का सूचन करता है। शब्द का वाच्य अर्थ न होकर कल्पित-बुद्धिप्रतिबिम्बित अन्यापोहरूप सामान्य है। इस लिए शब्द से होनेवाले ज्ञान में सत्यार्थता का कोई नियम नहीं है।
अकलंकदेव इसका समालोचन करते हुए कहते हैं कि-पदार्थ में कुछ धर्म सदृश तथा कुछ धर्म विसदृश होते हैं । सदृश धर्मों की अपेक्षा से शब्द का अर्थ में संकेत होता है । जिस शब्द में संकेत ग्रहण किया जाता है भले ही वह व्यवहारकाल तक नहीं पहुँचे पर तत्सदृश दूसरे शब्द से अर्थबोध होने में क्या बाधा है ? एक घटशब्द का एक घट अर्थ में संकेत ग्रहण करने के बाद तत्सदृश यावद् घटों में तत्सदृश यावद् घटशब्दों की प्रवृत्ति होती है । केवल सामान्य में संकेत नहीं होता; क्योंकि केवल सामान्य में संकेत ग्रहण करने से विशेष में प्रवृत्ति रूप फल नहीं हो सकेगा । न केवल विशेष में; अनन्त विशेषों में संकेत ग्रहण की शक्ति अस्मदादि पामर जनों में नहीं है । अतः सामान्यविशेषात्मक-सदृशधर्मविशिष्ट शब्द और अर्थव्यक्ति में संकेत ग्रहण किया जाता है । संकेत ग्रहण के अनन्तर शब्दार्थ का स्मरण करके व्यवहार होता है। जिस प्रकार प्रत्यक्षबद्धि अतीतार्थ को जान कर भी प्रमाण है उसी तरह स्मृति भी प्रमाण ही है। प्रत्यक्षबुद्धि में अर्थ कारण है, अतः वह एक क्षण पहिले रहता है ज्ञानकाल में नहीं । ज्ञानकाल में तो वह क्षणिक होने से नष्ट हो जाता है । जब अविसंवादप्रयुक्त प्रमाणता स्मृति में है ही, तब शब्द सुनकर स्मृति के द्वारा अर्थबोध करके तथा अर्थ देखकर स्मृति के द्वारा तद्वाचक शब्द का स्मरण करके व्यवहार अच्छी तरह चलता ही है । यह अवश्य है कि-सामान्यविशेषात्मक अर्थ को विषय करने पर भी अक्षज्ञान स्पष्ट तथा शब्दज्ञान अस्पष्ट होता है । जैसे एक ही वृक्ष को विषय करनेवाला दूरवर्ती पुरुष का ज्ञान अस्पष्ट तथा समीपवर्ती का स्पष्ट होता है । स्पष्टता और अस्पष्टता विषयभेदप्रयुक्त नहीं हैं, किंतु आवरणक्षयोपशमादिसामग्रीप्रयुक्त हैं। जिस प्रकार अविनाभावसम्बन्ध से अर्थ का बोध करानेवाला अनुमान अस्पष्ट होकर भी अविसंवादी होने से प्रमाण है उसी तरह वाच्यवाचकसम्बन्ध से अर्थ का ज्ञान करानेवाला शब्दबोध भी ही प्रमाण होना चाहिए। यदि शब्द बाह्यार्थ में प्रमाण न हो; तब बौद्ध स्वयं शब्दों से अदृष्ट नदी, देश, पर्वतादि का अविसंवादि ज्ञान कैसे करते हैं ? यदि कोई एकाध शब्द अर्थ की गैरमोजूदगी में प्रयुक्त होने से व्यभिचारी देखा गया तो मात्र इतने से सभी शब्दों को व्यभिचारी या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । जैसे प्रत्यक्ष या अनुमान कहीं कहीं भ्रान्त देखे जाने पर भी अभ्रान्त या अव्यभिचारि विशेषणों से युक्त होकर प्रमाण हैं उसी तरह आभ्रान्त शब्द को बाह्यार्थ में प्रमाण मानना चाहिए। यदि हेतुवादरूप शब्द के द्वारा अर्थ का निश्चय न हो; लो
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org