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प्रस्तावना
प्रमाणनिरूपण ] नाङ्ग है । यह सब लिखकर अन्त में उनने यह भी सूचन किया है कि स्वपक्षसिद्धि और परपक्षनिराकरण जयलाभ के लिए आवश्यक है।
अकलंकदेव आसाधनाङ्गवचन तथा अदोषोद्भावन के झगड़े को भी पसन्द नहीं करते। किसको साधनाङ्ग माना जाय किसको नहीं, किसको दोष माना जाय किसको नहीं यह निर्णय खयं एक शास्त्रार्थ का विषय हो जाता है। अतः स्वपक्षसिद्धि से ही जयव्यवस्था माननी चाहिए । स्वपक्षसिद्धि करनेवाला यदि कुछ अधिक बोल जाय तो कुछ हानि नहीं । प्रतिवादी यदि विरुद्ध हेत्वाभास का उद्भावन करता है तो फिर उसे खतन्त्र रूप से पक्षसिद्धि की भी आवश्यकता नहीं है; क्योंकि वादी के हेतु को विरुद्ध कहने से प्रतिवादी का पक्ष तो स्वतः सिद्ध हो जाता है । हाँ, असिद्ध आदि हेत्वाभासों के उद्भावन करने पर प्रतिवादी को अपना पक्ष भी सिद्ध करना चाहिए । स्वपक्षसिद्धि नहीं करनेवाला शास्त्रार्थ के नियमों के अनुसार चलने पर भी जय का भागी नहीं हो सकता।
जाति-मिथ्या उत्तरों को जाति कहते हैं। जैसे धर्मकीर्ति का अनेकान्त के रहस्य को न समझकर यह कहना कि-"यदि सभी वस्तुएँ द्रव्यदृष्टिसे एक हैं तो द्रव्यदृष्टि से तो दही और ऊँट भी एक हो गया । अतः दही खानेवाला ऊँट को भी क्यों नहीं खाता?" साधादिसम जातियों को अकलंकदेव कोई खास महात्त्व नहीं देते और न उनकी
आवश्यकता ही समझते हैं। आ० दिग्नाग की तरह अकलंकदेवने भी असदुत्तरों को अनन्त कहकर जातियों की २४ संख्या भी अपूर्ण सूचित की है ।
श्रुत-समस्त एकान्त प्रवादों के अगोचर, प्रमाणसिद्ध, परमात्मा के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन श्रुत है । श्रुत द्वीप, देश, नदी आदि व्यवहित अर्थों में प्रमाण है । हेतुवादरूप आगम युक्तिसिद्ध है। उसमें प्रमाणता होने से शेष अहेतुवाद आगम भी उसी तरह प्रमाण है । आगम की प्रमाणता का प्रयोजक प्राप्तोक्तत्व नाम का गुण होता है।
शब्द का अर्थवाचकत्व-बौद्ध शब्द का वाच्य अर्थ नहीं मानते । वे कहते हैं कि शब्द की प्रवृत्ति संकेत से होती है । स्वलक्षण क्षणक्षयी तथा अनन्त हैं । जब अनन्त स्वलक्षणों का ग्रहण भी संभव नहीं है तब संकेत कैसे ग्रहण किया जायगा ? ग्रहण करने पर भी व्यवहार काल तक उसकी अनुवृत्ति न होने से व्यवहार कैसे होगा ? शब्द अतीतानागतकालीन अर्थों में भी प्रयुक्त होते हैं, पर वे अर्थ विद्यमान तो नहीं हैं। अतः शब्द का अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि शब्द का अर्थ के साथ सम्बन्ध हो तो शब्दबुद्धि का प्रतिभास इन्द्रियबुद्धि की तरह स्पष्ट होना चाहिए । शब्दबुद्धि में यदि अर्थ कारण नहीं है: तब वह उसका विषय कैसे हो सकेगा ? क्योंकि जो ज्ञान में कारण नहीं है वह ज्ञान का विषय भी नहीं हो सकता। यदि अर्थ शब्दज्ञान में कारण हो; तो फिर कोई भी शब्द विसंवादी या अप्रमाण नहीं होगा, तथा अतीतानागत अर्थों में शब्द की प्रवृत्ति ही रुक जायगी। संकेत भी शब्द और अर्थ उभय का ज्ञान होने पर ही हो
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