SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ अकलङ्क प्रन्थत्रय [ प्रन्थ अतः वे वाद को ही एक मात्र कथा रूप से स्वीकार करते हैं। उनने बाद का संक्षेप में ' समर्थवचन को वाद कहते हैं' यह लक्षण करके कहा है कि वादि-प्रतिवादियों का मध्यस्थों के सामने स्वपक्षसाधन - परपक्षदूषणवचन को वाद कहना चाहिए । इस तरह वाद और जल्प को एक मान लेने पर वे यथेच्छ कहीं वाद शब्द का प्रयोग करते हैं तो कहीं जल्प शब्द का । वितण्डा को जिसमें वादी अपना पक्षस्थापन नहीं करके मात्र प्रतिवादी के पक्ष का खण्डन ही खण्डन करता है, वादाभास कहकर त्याज्य बताया है । जयपराजयव्यवस्था - नैयायिक ने इसके लिए प्रतिज्ञाहानि आदि २२ निग्रहस्थान माने हैं। जिनमें बताया है कि यदि कोई वादी अपनी प्रतिज्ञा की हानि कर दे, दूसरा हेतु बोल दे, सम्बद्ध पद-वाक्य या वर्ण बोले, इस तरह बोले जिससे तीन बार कहने पर भी प्रतिवादी और परिषद न समझ पावे, हेतुदृष्टान्तादि का क्रम भंग हो जाय, अवयव न्यून कहे जायँ, अधिक अवयव कहे जायँ, पुनरुक्त हो, प्रतिवादी वादीकेद्वारा कहे गए पक्ष का अनुवाद न कर सके, उत्तर न दे सके, वादी के द्वारा दिए गए दूषण को अस्वीकार कर खंडन करे, निग्रहाई के लिए निग्रहस्थान उद्भावन न कर सके, अनिग्रहाई को निग्रहस्थान बता देवे, सिद्धान्तविरुद्ध बोल जावे, हेत्वाभासों का प्रयोग करे तो निग्रहस्थान अर्थात् पराजय होगा । सामान्य से नैयायिकों ने विप्रतिपत्ति और प्रतिपत्ति को निग्रहस्थान माना है । विप्रतिपत्ति-विरुद्ध या असम्बद्ध कहना । अप्रतिपत्तिपक्षस्थापन नहीं करना, स्थापित का प्रतिषेध नहीं करना तथा प्रतिषिद्ध का उद्धार नहीं करना । प्रतिज्ञाहान्यादि २२ तो इन्हीं दोनों के ही विशेष प्रकार है । । 1 धर्मकीर्ति ने इनका खंडन करते हुए लिखा है कि- जयपराजयव्यवस्था को इस तरह गुटाले में नहीं रखा जा सकता। किसी भी सच्चे साधनवादी का मात्र इसलिए निग्रह होना कि वह कुछ अधिक बोल गया या अमुक कायदे का पालन नहीं कर सका, सत्य और अहिंसा की दृष्टि से उचित नहीं है । अतः वादी और प्रतिवादी के लिए क्रमशः प्रसाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन, ये दो ही निग्रहस्थान मानना चाहिये । वादी का कर्त्तव्य है कि वह सच्चा और पूर्ण साधन बोले । प्रतिवादी का कार्य है कि वह यथार्थ दोषों का उद्भावन करे। यदि वादी सच्चा साधन नहीं बोलता या जो साधन के अंग नहीं हैं ऐसे वचन कहता है तो उसका प्रसाधनांगवचन होने से पराजय होना चाहिए । प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषों का उद्भावन न कर सके या जो दोष नहीं हैं उनका उद्भावन करे तो उसका पराजय होना चाहिए । इस तरह सामान्यलक्षण करने पर भी धर्मकीर्ति फिर उसी घपले में पड़ गए । उन्होंने साधनाङ्गवचन तथा प्रदोषोद्भावन के विविध व्याख्यान करके कहा है कि अन्वय या व्यतिरेक दृष्टान्त में से केवल एक दृष्टान्त से ही जब साध्यकी सिद्धि संभव है तो दोनों दृष्टान्तों का प्रयोग करना असाधनाङ्गवचन होगा । त्रिरूपवचन ही साधनाङ्ग है, उसका कथन न करना साधनाङ्ग है । प्रतिज्ञा निगमनादि साधन के अंग नहीं हैं, उनका कथन असाध - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy