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प्रमाणनिरूपण ]
प्रस्तावना
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रूप से । पर इतने मात्र से एक वस्तुविषयक और दूसरा वस्तु को विषय करनेवाला नहीं कहा जा सकता । जिस विकल्पज्ञान से आप धर्मधर्मिभाव की कल्पना करते हैं, वह विकल्पज्ञान निर्विकल्पक से तो सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि निर्विकल्पकनिश्चयशून्यज्ञान से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती । बिकल्पान्तर से सिद्धि माने में नवस्था दूषण आता है । अतः विकल्प को स्व और अर्थ दोनों ही अशों में प्रमाण मानना चाहिए । जब विकल्प अर्थांश में प्रमाण हो जायगा; तब ही उसके द्वारा विषय किए गए धर्मी आदि भी सत्य एवं परमार्थ सिद्ध होंगे । यदि धर्मी ही मिथ्या है; तब तो उसमें रहने वाले साध्य साधन भी मिध्या एवं कल्पित ठहरेंगे । इस तरह परम्परा
भी अनुमान के द्वारा अर्थ की प्राप्ति नहीं हो सकेगी । अतः धर्मी को प्रमाण सिद्ध मानना चाहिए केवल विकल्पसिद्ध नहीं । अकलंकोत्तरवर्ती श्रा० माणिक्यनन्दि ने इसी आशय से परीक्षामुखसूत्र में धर्मी के तीन भेद किए हैं - १ प्रमाणसिद्ध, २ बिकल्पसिद्ध, ३ उभयसिद्ध ।
अनुमान के भेद - न्यायसूत्र में अनुमान के तीन भेद किए हैं- पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट । सांख्यतत्त्वकौमुदी में अनुमान के दो भेद पाए जाते हैं - एक वीत और दूसरा वीत । वीत अनुमान के दो भेद - १ पूर्ववत् २ सामान्यतोदृष्ट । सांख्य के इन भेदों की परम्परा वस्तुतः प्राचीन है । वैशेषिक ने अनुमान के कार्यलिंगज, कारणलिंगज, संयोगिलिंगज, विरोधिलिंगज और समवायिलिंगज, इस तरह पाँच मेद किए हैं । कलंकदेव तो सामान्यरूप से एक ही अन्यथानुपपत्तिलिंगज अनुमान मानते हैं । वे इन पूर्ण भेदों की परिगणना को महत्त्व नहीं देते ।
वाद - नैयायिक कथा के तीन भेद मानते हैं - १ वाद, २ जल्प, ३ वितण्डा । बीतरागकथा का नाम वाद है तथा विजिगीषुकथा का नाम जल्प और वितण्डा है । पक्षप्रतिपक्ष तो दोनों कथाओं में ग्रहण किए ही जाते हैं । हाँ, इतना अन्तर है कि-वाद में स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण प्रमाण और तर्क के द्वारा होते हैं, जब कि जल्प और वितण्डा में छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असदुत्तरों से भी किए जा सकते हैं । नैयायिक ने कुलादि के प्रयोग को प्रसदुत्तर माना है और साधारण अवस्था में उनके प्रयोग का निषेध भी किया है । वाद का प्रयोजन तत्त्वनिर्णय है। जल्प और वितण्डा का प्रयोजन है तत्त्वसंरक्षण, जो छलजातिरूप असदुपायों से भी किया जा सकता है । जैसे खेत की रक्षा के लिए काटों की बारी लगाई जाती है उसी तरह तत्त्वसंरक्षण के लिए कांटे के समान छलादि के प्रयोग का अवलम्बन अमुक अवस्था में ठीक है । आ० धर्मकीर्ति ने अपने वादन्याय में कुलादि के प्रयोग को बिलकुल अन्याय्य बताया है । उसी तरह अकलंकदेव अहिंसा की दृष्टि से किसी भी हालत में छलादि रूप असदुत्तर के प्रयोग को उचित नहीं समझते । छलादि को अन्याय्य मान लेने से जल्प और वाद में कोई भेद ही नहीं रह जाता ।
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