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________________ ६४ अकलङ्कग्रन्थत्रय [ प्रन्थ हैं उन्हें किञ्चित्कर कहना चाहिए । इससे मालूम होता है कि वे सामान्य से हेत्वाभासों की अकिञ्चित्कर या असिद्ध संज्ञा रखते थे । इसके स्वतन्त्र हेत्वाभास होने पर उनका भार नहीं था । यही कारण है कि आ० माणिक्यनन्दि ने प्रकिञ्चित्कर हेत्वाभास के लक्षण और भेद कर चुकने पर भी लिखा है कि- इस किञ्चित्कर हेत्वाभास का विचार हेत्वाभास के लक्षणकाल में ही करना चाहिए । शास्त्रार्थ के समय तो इसका कार्य पक्षदोष से ही किया जा सकता है । प्राचार्य विद्यानन्द ने भी सामान्य से एक हेत्वाभास कह कर असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक को उसीका रूपान्तर माना है । उनने भी अकिश्चित्कर हेत्वाभास के ऊपर भार नहीं दिया । वादिदेवसूरि आदि उत्तरकालीन आचार्यों सिद्धादि तीन ही हेत्वाभास गिनाए हैं । । साध्य - आ० दिग्नाग ने पक्ष के लक्षण में ईप्सित तथा प्रत्यक्षाधविरुद्ध ये दो विशेषण दिए हैं । धर्मकीर्ति ईप्सित की जगह इष्ट तथा प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध के स्थान में प्रत्याक्षाद्यनिराकृत शब्द का प्रयोग करते हैं । अकलंकदेव ने अपने साध्य के लक्षण में शक्य ( अबाधित) अभिप्रेत . ( इष्ट ) और प्रसिद्ध इन तीन विशेषणों का प्रयोग किया है। प्रसिद्ध विशेषण तो 'साध्य' शब्द के अर्थ से ही फलित होता है । साध्य का अर्थ हैसिद्ध करने योग्य, अर्थात् प्रसिद्ध । शक्य और अभिप्रेत विशेषण बौद्धाचार्यों के द्वारा किए गए साध्य के लक्षण से आए हैं साध्य का यह लक्षण निर्विवादरूप से माणिक्यनन्दि आदि आचार्यों द्वारा स्वीकृत है । सिद्ध, अनिष्ट तथा बाधित को साध्याभास कहा है । दृष्टान्त - जहाँ साध्य और साधन के सम्बन्ध का ज्ञान होता है उस प्रदेश का नाम दृष्टान्त है । साध्यविकल तथा साधनविकलादिक दृष्टान्ताभास हैं । इस तरह दृष्टान्त और दृष्टान्ताभास का लक्षण करने पर भी अकलंकदेव ने दृष्टान्त को अनुमान का अवयव स्वीकार नहीं किया । उनने लिखा है कि सभी अनुमानों में दृष्टान्त होना ही चाहिए ऐसा नियम नहीं है, दृष्टान्त के बिना भी साध्य की सिद्धि देखी जाती है, जैसे बौद्ध के मत से समस्त पदार्थों को क्षणिकत्व सिद्ध करने में सत्त्व हेतु के प्रयोग में कोई दृष्टान्त नहीं है अतः दृष्टान्त अनुमान का नियत अवयव नहीं है । इसीलिए उत्तरकालीन कुमारनन्दि आदि आचार्यों ने प्रतिज्ञा और हेतु इन दो को ही अनुमान का अवयव माना है । हाँ, मन्दबुद्धि शिष्यों की दृष्टि से दृष्टान्त, उपनय तथा निगमनादि भी उपयोगी हो सकते हैं । धर्मी - बौद्ध अनुमान का विषय कल्पित सामान्य मानते हैं, क्षणिक स्वलक्षण नहीं । आ० दिग्नाग ने कहा है कि- समस्त अनुमान - अनुमेयव्यवहार बुद्धिकल्पित धर्मधर्मन्याय से चलता है, किसी धर्मी की वास्तविक सत्ता नहीं है । अकलंकदेव कहते हैं कि - जिस तरह प्रत्यक्ष परपदार्थ तथा स्वरूप को विषय करता है उसी तरह अनुमान भी वस्तुभूत अर्थ को ही विषय करता है । हाँ, यह हो सकता है कि प्रत्यक्ष उस वस्तु को स्फुट तथा विशेषाकार रूप से ग्रहण करे और अनुमान उसे अस्फुट एवं सामान्याकार 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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