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प्रस्तावना
प्रमाणनिरूपण ]
१ असिद्ध-सर्वथात्ययात्-सर्वथा पक्ष में न पाया जानेवाला, अथवा सर्वथा जिसका साध्य से अविनाभाव न हो । जैसे शब्द अनित्य है चाक्षुष होने से ।
२ विरुद्ध-अन्यथाभावात्-साध्याभाव में पाया जानेवाला, जैसे सब क्षणिक हैं, सत् होने से । सत्त्वहेतु सर्वथाक्षणिकत्व के विपक्षभूत कथञ्चित्क्षणिकत्व में पाया जाता है।
३ अनैकान्तिक-विपक्ष में भी पाया जाने वाला । जैसे सर्वज्ञाभाव सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त वक्तृत्वादिहेतु। यह निश्चितानैकान्तिक, सन्दिग्धनैकान्तिक आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है ।
४ अकिञ्चित्कर-सिद्ध साध्य में प्रयुक्त हेतु । अन्यथानुपपत्ति से रहित जितने त्रिलक्षण हेतु हैं उन सब को भी अकिञ्चित्कर समझना चाहिए ।
दिग्नागाचार्य ने विरुद्धाव्यभिचारी नाम का भी एक हेत्वाभास माना है । परस्पर विरोधी दो हेतुओं का एक धर्मी में प्रयोग होने पर प्रथम हेतु विरुद्वाव्यभिचारी हो जाता है। यह संशयहेतु होने से हेत्वाभास है । धर्मकीर्ति ने इसे हेत्वाभास नहीं माना है । वे लिखते हैं कि-प्रमाणसिद्धत्रैरूप्यवाले हेतु के प्रयोग होने पर विरोधी हेतु को अवसर ही नहीं मिल सकता। अतः इसकी आगमाश्रितहेतु के विषय में प्रवृत्ति मानकर आचार्य के वचन की संगति लगा लेनी चाहिए, क्योंकि शास्त्र अतीन्द्रियार्थविषय में प्रवृत्ति करता है । शास्त्रकार एक ही वस्तु को परस्पर विरोधी रूप से कहते हैं, अतः आगमाश्रित हेतुओं में ही यह संभव हो सकता है। अकलंकदेव ने इस हेत्वाभास का विरुद्धहेत्वाभास में अन्तर्भाव किया है। जो हेतु विरुद्ध का अव्यभिचारी-विपक्ष में भी रहने वाला होगा वह विरुद्ध हेत्वाभास की ही सीमा में आयगा ।
अर्चटकृत हेतुबिन्दुविवरण में एक षड्लक्षण हेतु माननेवाले मत का कथन है। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षाद्व्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और ज्ञातत्व ये छह लक्षण हैं। इनमें ज्ञातत्व नाम के रूप का निर्देश होने से इस वादी के मत से 'अज्ञात' नाम का भी हेत्वाभास फलित होता है । अकलंकदेव ने इस 'अज्ञात' हेत्वाभास का अकिञ्चित्कर हेत्वाभास में अन्तर्भाव किया है । नैयायिकोक्त पाँच हेत्वाभासों में कालात्ययापदिष्ट का अकिञ्चित्कर हेत्वाभास में, तथा प्रकरणसम का जो दिग्नाग के विरुद्धाव्यभिचारी जैसा है, विरुद्धहेत्वाभास में अन्तर्भाव समझना चाहिए । इस तरह अकलंकदेव ने सामान्य रूप से एक हेत्वाभास कह कर भी विशेषरूपसे असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर इन चार हेत्वाभासों का कथन किया है।
___ अकलंकदेव का अभिप्राय अकिञ्चित्कर को स्वतन्त्र हेत्वाभास मानने के विषय में सुदृढ़ नहीं मालूम होता। क्योंकि वे लिखते हैं कि-सामान्य से एक प्रसिद्ध हेत्वाभास है । वही विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध के भेद से अनेक प्रकार का है। ये विरुद्धादि अकिञ्चित्कर के विस्तार हैं। फिर लिखते हैं कि-अन्यथानुपपत्तिरहित जितने त्रिलक्षण
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