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अकलङ्कप्रन्थत्रय
[ ग्रन्थ
तरह 'अद्वैतवादी के प्रमाण हैं, अन्यथा इष्टसाधन और अनिष्टदूषण नहीं हो सकेगा ।' इस स्थल में जब इस अनुमान के पहिले अद्वैतवादियों के यहाँ प्रमाण नामक धर्मी की सत्ता ही सिद्ध नहीं है तब पक्षधर्मत्व कैसे बन सकता है ? पर उक्त हेतुओं की स्वसाध्य के साथ अन्यथा ऽनुपपत्ति (अन्यथा - साध्य के अभाव में विपक्ष में अनुपपत्ति - प्रसव ) देखी जाती है, अतः वे सद्धेतु हैं ।
धर्मकीर्ति के टीकाकार कर्णकगोमि ने शकटोदयादि का अनुमान कराने वाले कृतिकोदयादि वैयधिकरण हेतुओं में काल या आकाश को धर्मी बनाकर पक्षधर्मत्व घटाने की युक्ति का उपयोग किया है। अकलंकदेव ने इसका भी निराकरण करते हुए कहा है कि यदि काल आदि को धर्मी बनाकर कृतिकोदय में पक्षधर्मत्व घटाया जायगा तब तो पृथिवीरूप पक्ष की अपेक्षा से महान सगतधूम हेतु से समुद्र में भी अग्नि सिद्ध करने में हेतु पक्षधर्म नहीं होगा ।
सपक्षसत्त्व को अनावश्यक बताते हुए अकलंदेव लिखते हैं कि-पक्ष में साध्य और साधन की व्याप्तिरूप अन्तर्व्याप्ति के रहने पर ही हेतु सर्वत्र गमक होता है। पक्ष से बाहिर - सपक्ष में व्याप्ति ग्रहण करने रूप बहिर्व्याप्ति से कोई लाभ नहीं । क्योंकि अन्तर्व्याप्ति के असिद्ध रहने पर बहिर्व्याप्ति तो असाधक ही है । जहाँ अन्तर्व्याप्त गृहीत है वहाँ बहिर्व्याप्ति के ग्रहण करने पर भी कुछ खास लाभ नहीं है । अतः बहिर्व्याप्ति का प्रयोजक पक्षसत्वरूप भी अनावश्यक है । इस तरह अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का व्यावर्तक रूप मानते हुए कलंकदेव ने स्पष्ट लिखा है कि जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ त्रिरूपता मानने से क्या लाभ ? जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ त्रिरूपता मानकर भी गमकता नहीं आ सकती । 'अन्यथानुपपन्नत्वं' यह कारिका तत्त्वसंग्रहकार के उल्लेखानुसार पात्रस्वामि की मालूम होती है । यही कारिका अकलंक ने न्यायविनिश्चय के त्रिलक्षणखण्डनप्रकरण में लिखी है ।
हेत्वाभास - नैयायिक हेतु के पाँच रूप मानते हैं, अतः वे एक एक रूप के अभाव में असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास मानते हैं । बौद्ध ने हेतु को त्रिरूप माना है, अतः उनके मत से पक्षधर्मत्व के प्रभाव से प्रसिद्ध हेत्वाभास, सपक्षसत्त्व के प्रभाव से विरुद्ध हेत्वाभास तथा विपक्षासत्त्व के अभाव से अनैकान्तिक हेत्वाभास, इस तरह तीन हेत्वाभास होते हैं । कलंकदेव ने जब अन्यथानुपपन्नत्व को ही हेतु का एकमात्र नियामक रूप माना है तब स्वभावतः इनके मत से अन्यथानुपपन्नत्व के अभाव में एक ही हेत्वाभास माना जायगा, जिसे उन्होंने स्वयं लिखा है कि-वस्तुतः एक ही प्रसिद्ध हेत्वाभास है । अन्यथानुपपत्ति का अभाव कई प्रकार से होता है अतः विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध और ि चित्र के भेद से चार हेत्वाभास भी हो सकते हैं । इनके लक्षण इस प्रकार हैं
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