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________________ प्रमाणनिरूपण ] प्रस्तावना ४ सहचरोपलब्धि-आत्मा है, स्पर्शविशेष (शरीर में उष्णता विशेष) पाया जाने से। ५ सहचरकार्योपलब्धि-कायव्यापार हो रहा है, वचनप्रवृत्ति होने से । ६ सहचरकारणोपलब्धि-आत्मा सप्रदेशी है, सावयवशरीर के प्रमाण होने से । असद्यवहारसाधन के लिए ६ अनुपलब्धियाँ बताई हैं१ स्वभावानुपलब्धि-क्षणक्षयैकान्त नहीं है, अनुपलब्ध होने से । २ कार्यानुपलब्धि-क्षणक्षयैकान्त नहीं है , उसका कार्य नहीं पाया जाता। ३ कारणानुपलब्धि-क्षणक्षयकान्त नहीं है, उसका कारण नहीं पाया जाता । ४ स्वभावसहचरानुपलब्धि-आत्मा नहीं है, रूपविशेष ( शरीर में आकारविशेष) नहीं पाया जाता। ५ सहचरकार्यानुपलब्धि-आत्मा नहीं है, व्यापार, आकारविशेष तथा वचनविशेष की अनुपलब्धि होने से । ६ सहचरकारणानुपलब्धि-आत्मा नहीं है, उसके द्वारा आहार ग्रहण करना नहीं देखा जाता । सजीव शरीर ही स्वयं आहार ग्रहण करता है । सद्यहार के निषेध के लिए ३ उपलब्धियाँ बताई हैं१ स्वभावविरुद्धोपलब्धि-पदार्थ नित्य नहीं है, परिणामी होने से । २ कार्यविरुद्धोपलब्धि-लक्षणविज्ञान प्रमाण नहीं है, विसंवादी होने से । (?) ३ कारणविरुद्धोपलब्धि-इस व्यक्ति को परीक्षा का फल प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि इसने अभावैकान्त का ग्रहण किया है। इस तरह सद्भावसाधक ६ उपलब्धियाँ तथा अभावसाधक ६ अनुपलब्धियों को कण्ठोक्त कहकर इनके और अन्य अनुपलब्धियों के भेदप्रभेदों का इन्हीं में अन्तर्भाव किया है। साथ ही यह भी बताया है कि-धर्मकीर्ति के कथनानुसार अनुपलब्धियाँ केवल अभाव साधक ही नहीं हैं, किन्तु भावसाधक भी होती हैं। इसी संकेत के अनुसार माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द तथा वादिदेवसूरि ने उपलब्धि और अनुपलब्धि दोनों को उभयसाधक मानकर उनके अनेकों भेदप्रभेद किए हैं। त्रैरूप्य निरास-बौद्ध हेतु के तीन रूप मानता है। प्रत्येक सत्य हेतु में निम्न त्रिरूपता अवश्य ही पाई जानी चाहिए, अन्यथा वह सद्धेतु नहीं हो सकता । १ पक्षधर्मत्व-हेतु का पक्ष में रहना । २ सपक्ष सत्त्व-हेतु का समस्त सपक्षों में या कुछ सपक्षों में रहना । ३ विपक्षासत्त्व-हेतु का विपक्ष में बिलकुल नहीं पाया जाना । अकलंकदेव इनमें से तीसरे विपक्षासत्त्व रूप को ही सद्धेतुत्व का नियामक मानते हैं। उनकी दृष्टि से हेतु का पक्ष में रहना तथा सपक्षसत्त्व कोई आवश्यक नहीं है। वे लिखते हैं कि-'शकटोदय होगा, कृतिकोदय होने से' 'भरणी का उदय हो चुका, कृतिका का उदय होने से' इन अनुमानों में कृतिकोदय हेतु पक्षभूत शकट तथा भरणि में नहीं पाया जाता । इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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