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________________ अकलकग्रन्थत्रय [प्रन्थ सहचर हेतु-चन्द्रमा के इस भाग को देखकर उसके उस भाग का अनुमान, तराजू के एक पलड़े को नीचा देख कर दूसरे पलड़े के ऊँचे होने का अनुमान, रस चखकर रूप का अनुमान, तथा सास्ना देखकर गौ का अनुमान देखा जाता है। यहाँ : रसादि सहचर हेतु हैं; क्योंकि इनका अपने साध्यों के साथ तादात्म्य और तदुत्पत्ति आदि कोई सम्बन्ध नहीं होने से ये कार्य आदि हेतुओं में अन्तर्भूत नहीं हैं। हाँ, अविनाभाव मात्र होने से ये हेतु गमक होते हैं। अनुपलब्धि-बौद्ध दृश्यानुपलब्धि से ही अभाव की सिद्धि मानते हैं । दृश्य से उनका तात्पर्य ऐसी वस्तु से है कि-जो वस्तु सूक्ष्म अन्तरित या दूरवर्ती न हो तथा जो प्रत्यक्ष का विषय हो सकती हो। ऐसी वस्तु उपलब्धि के समस्त कारण मिलने पर भी यदि उपलब्ध न हो तो उसका अभाव समझना चाहिए। सूक्ष्मादि पदार्थों में हम लोगों के प्रत्यक्ष आदि की निवृत्ति होने पर भी उनका अभाव तो नहीं होता । प्रमाण से प्रमेय का सद्भाव जाना जा सकता है पर प्रमाण की अप्रवृत्ति से प्रमेय का अभाव नहीं माना जा सकता। अतः विप्रकृष्ट पदार्थों में अनुपलब्धि संशयहेतु होने से अभाव की साधिका नहीं हो सकती। . अकलंकदेव इसका निरास करते हुए लिखते हैं कि-दृश्यत्व का अर्थ प्रत्यक्षविषयत्व ही न होना चाहिए किन्तु प्रमाणविषयत्व करना चाहिए । इससे यह तात्पर्य होगा कि-जो वस्तु जिस प्रमाण का विषय होकर यदि उसी प्रमाण से उपलब्ध न हो तो उसका अभाव सिद्ध होगा। देखो-मृत शरीर में स्वभाव से अतीन्द्रिय परचैतन्य का अभाव भी हम लोग सिद्ध करते हैं। यहाँ परचैतन्य में प्रत्यक्षविषयत्वरूप दृश्यत्व तो नहीं है क्योंकि परचैतन्य हमारे प्रत्यक्ष का विषय नहीं होता । वचन उष्णताविशेष या आकारविशेष आदि के द्वारा उसका अनुमान किया जाता है, अत: उन्हीं वचनादि के अभाव से चैतन्य का अभाव सिद्ध होना चाहिए । अदृश्यानुपलब्धि यदि संशय हेतु मानी जाय तो अपनी अदृश्य आत्मा की सत्ता भी कैसे सिद्ध हो सकेगी ? आत्मादि अदृश्य पदार्थ अनुमान के विषय हैं; यदि हम उनकी अनुमान से उपलब्धि न कर सकें तब उनका अभाव सिद्ध कर सकते हैं। हाँ, जिन पिशाचादि पदार्थों को हम किसी भी प्रमाण से नहीं जान सकते उनका अभाव हम अनुपलब्धि से नहीं कर सकेंगे। तात्पर्य यह कि-जिस वस्तु को हम जिन जिन प्रमाणों से जानते हैं उस वस्तु का उन उन प्रमाणों की निवृत्ति से अभाव सिद्ध होगा। __ अकलङ्क कृत हेतु के भेद-अकलंकदेव ने सद्भाव साधक ६ उपलब्धियों का वर्णन किया है १ स्वभावोपलब्धि-आत्मा है, उपलब्ध होने से । २ स्वभावकार्योपलब्धि- आत्मा थी, स्मरण होने से । ३ स्वभावकारणोपलब्धि-आत्मा होगी, सत् होने से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002504
Book TitleAkalanka Granthtrayam
Original Sutra AuthorBhattalankardev
AuthorMahendramuni
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1969
Total Pages390
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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